वंशिका @9

जय जय श्यामाश्याम

वंशिका 9

      श्री राधा अत्यंत विरहित स्थिति में हैँ। श्याम सुंदर को आने में विलम्ब हो रहा है इधर श्री प्रिया विरह पीड़ा से अकुलाती जा रही है जैसे देह में प्राण रखने कठिन हों इस प्रकार विरहणी की भांति तड़प रही है।

अब बिरहन की लीजो खबरिया
मुरली सुनाओ मेरे साँवरिया

कैसे सुनाऊँ हिय की बतियाँ
नैनन माँहि बीते सारी रतियाँ
दूर देस हाय तेरी नगरिया
अब बिरहन की लीजो खबरिया
मुरली सुनाओ मेरे साँवरिया

तुम बिन प्रियतम प्राण मेरो जावे
कोऊ तेरा संदेसा नाँहि आवे
व्याकुल भई मोहना तेरी बांवरिया
अब बिरहन की लीजो खबरिया
मुरली सुनाओ मेरे साँवरिया

या मिल जावो या प्राण हरो मेरो
व्याकुल हिय पिया नाम रटे तेरो
धीर धरे कैसो हाय तेरी गुजरिया
अब बिरहन की लीजो खबरिया
मुरली सुनाओ मेरे साँवरिया

   ललिता सखी उन्हें इस दशा में देख अत्यंत व्याकुल हो जाती है। श्री श्यामा मोहन की प्रतीक्षा में इस प्रकार व्यथित हैँ आज मैं मोहन से उनकी ये बांसुरी छीन लूंगी। जब श्यामा इस प्रकार अधीर होंगी मैं ही बांसुरी बजाकर उनके प्राणों को सुख दूंगी। इस बांसुरी की स्वामिनी मेरी प्राणप्रिय सखी है यदि इन्हें ही बांसुरी से कोई सुख न हुआ तो इस बांसुरी को श्यामसुन्दर के पास भी नहीं रहने दूंगी। कुछ समय पश्चात श्यामसुन्दर उधर आ जाते हैँ ललिता जू उन्हें भीतर प्रवेश नहीं करने देती। श्यामसुन्दर जब तक मुझे ये बांसुरी न दोगे तुम्हें भीतर प्रवेश नहीं करने दूंगी। श्री श्यामा अत्यंत विरहित हैँ इस बांसुरी को मुझे रखना है ताकि वह धैर्य धारण कर सकें । उस समय तो श्यामसुन्दर श्री जू के पास जाने का कोई और उपाय न देख ललिता जू को बांसुरी दे देते हैं और ललिता जू उन्हें श्यामा के पास ले जाती है। श्यामसुन्दर को श्यामा अपने अश्रुपूरित नेत्रों से देखती है और तुरन्त उनके आलिंगन में समा जाती है। ललिता जू बांसुरी को लेकर अपने कक्ष में आ जाती है। क्यों री वंशिका ! तू भी श्यामसुन्दर से न कहती है कि श्री प्रिया अत्यंत विरहित हैं । क्या तुझे अपनी स्वामिनी की पीड़ा का अनुभव नहीं होता है। तू हृदयहीन भला किस प्रकार समझेगी मेरी श्यामा जू की विरह व्यथा। इतना सुनकर बांसुरी श्री ललिता जू का श्री प्रिया के प्रति अत्यंत स्नेह देखती है जिसके वशीभूत होकर ललिता जू श्यामसुन्दर तक को कटु वचन कह देती है,भीतर से वह अपनी सखी की इस दशा का अनुभव कर अत्यंत पीड़ित है।

    वंशिका ललिता सखी से कहती है ललिता जू मैं आपके हृदय में जैसे श्री प्रिया के प्रति अगाध स्नेह देखती हूँ उसी प्रकार श्यामसुन्दर के हृदय में भी श्री प्रिया ही हैँ। सत्य तो यह है कि श्री प्रिया के सुख हेतु श्यामसुन्दर सदैव लालयित रहते हैँ। अपनी प्यारी जू की चरण रज को उठा उठा भी उसमें लोट पोट होते रहते हैँ। आज ही मैंने देखा जब श्री प्रिया यमुना तट से इस ओर आ रही थी तो श्यामसुन्दर के नेत्रों से अविरल अश्रुधार बह रही थी। कुछ क्षण पश्चात जहाँ जहाँ स्वामिनी जू के पग चिन्ह थे श्यामसुन्दर वहां की रज उठा अपने शीश पर रखने लगे,शायद इससे भी उनके हृदय को संतोष न हुआ तो वह उस रज में लौटने लगे थे। ललिता जू मैं सत्य कहती हूँ जिस प्रकार श्यामा के हृदय में श्यामसुन्दर समाये रहते हैँ उसी प्रकार श्यामसुन्दर के हृदय में केवल श्यामा है। इतना सुनते ही ललिता सखी प्रेम विभोर हो जाती है तथा बांसुरी से कहती है अच्छा कल सुबह तुझे श्यामसुन्दर को लौटा दूंगी। परन्तु अब तुम श्यामसुन्दर को विलम्ब होने पर शीघ्रता से ले आना।  तू सत्य कहती है वंशिके हमारे युगल का प्रेम ऐसा अद्भुत है। दोनों के नेत्रों से प्रेमाश्रु छलकने लगते हैँ।

क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

भोरी सखी भाव रस

घुंघरू 2

यूँ तो सुकून