तितली5

जय जय श्यामाश्याम

विरहणी तितली 5

श्री कृष्ण अपने अग्रज भ्राता बलदाऊ संग रथ में सवार हैं और अक्रूर जी ने रथ को नन्दभवन से आगे ले जाना आरम्भ किया है, ये तितली अपने प्रियतम कान्हा का संग कैसे छोड़ सकती है। कुछ ही आगे चलने पर कान्हा की मित्र मण्डली मनसुखा , मधुमंगल , श्रीदाम और अन्य मित्र रथ के इर्द गिर्द खड़े हो जाते हैं। अपने प्यारे सखा को जाते देख कैसे धैर्य रखेंगें। ओ कान्हा ! तुम मथुरा मत जाओ न , हम यहीं वन में बहुत आनन्द करेंगें। देखो तुमको तंग भी न करेंगें। न तुम पर रौब डालेंगें , न ही तुमसे खाने को मांगेंगे, बस तुम अपनी बांसुरी बजाते रहना। श्री कृष्ण त्रिभुवन पति हैं परंतु यहां वह अपना समस्त ऐश्वर्य छोड़ सखाओं के नटखट सखा हैं। किसी की जूठन खानी , किसी के संग धक्का मुक्की , झगड़ा, रूठना मनाना, आँख मिचौली ये ही उनका सखाओं संग आनन्द है। नित्य आनन्दकन्द इन लीलाओं द्वारा स्वयं भी आनन्दित होते हैं और सखाओं को भी आनन्द देते हैं। कुछ क्षण को इस तितली को इन नटवर नागर की सभी शैतानियां भी स्मरण हो आई, सखाओं के संग नित्य माखन चोरी तो इनका नित्य कर्म रहा है।

    आज समस्त मित्र मण्डली अपना नटखटपन छोड़ चुकी है, सबकी आँखों से अश्रु धारा बह रही है। कान्हा तुम मथुरा कितने दिवस के लिए जा रहे हो, तुम शीघ्रता से लौट आना। हम तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगें। मधुमंगल बोल उठा , अरे ऐसे कैसे कह दिए शीघ्र लौट आना, मैं तो अपने कान्हा को एक कदम भी आगे जाने नहीं दूंगा। मित्र मण्डली का स्नेह देख बाल सुलभ चंचलता वश कान्हा बोल उठे, अरे तुम सब उदास न रहो मित्रो, मैं शीघ्र ही लौटने वाला हूँ। कुछ दिन मथुरा नगरी देख लूँ शीघ्र ही लौट आऊँगा। तुम सब तो ऐसे कर रहे हो जैसे मै सदा के लिए जा रहा हूँ।

     मधुमंगल तुरन्त ही अबोधता में कह उठता है , कान्हा , देखो अब तुम्हें कभी भोजन के लिए परेशान न करूँगा। तुमको कितना कष्ट देता हूँ सदा से तुमको मेरे भोजन की ही चिंता रहती है। कान्हा ! मत जाओ तुम , मत जाओ। सभी सखा रुदन करने लगते हैं। कान्हा और दाऊ भैया सबको धैर्य बंधाते हैं। कान्हा अपने सभी मित्रों को पुनः पुनः आलिंगन देकर रथ में बैठ जाते हैं। तितली उनके व्याकुल हृदय की पीड़ा अनुभव कर रही है। रथ आगे बढ़ने लगता है और सभी सखा वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, परन्तु ये तितली अपने प्राण प्रियतम का संग कैसे त्याग दे। चारो ओर जैसे गहन उदासी छाई हुई है , जैसे जैसे रथ आगे बढ़ रहा है तितली के हृदय की पीड़ा भी बढ़ती जा रही है। तितली देख रही है आज न तो कोई मयूर नृत्य कर रहा है न ही कोयल गीत गा रही है। समस्त ब्रजमण्डल जैसे अपने प्रियतम के विरह से तपने लगा है। आज इस तितली को न तो कोई पुष्प आकर्षित कर रहा है न ही इसे किसी पुष्प से मधु पान करना है, इसे तो बस अपने प्रियतम की माधुरी का रस पान अपने तृषित नेत्रों द्वारा करते रहना है। समस्त पुष्पावली भी आज मुरझाई हुई है, जब प्राण प्रिय ही अपनी दृष्टि इनपर न करें जिनका सौंदर्य भी तो फीका ही है। किसी को कुछ भी न सुहा रहा है। एक बार तो तितली अपने भाग्य को कोस रही है, हाय !  कितनी निर्मोही कितनी निर्लज्ज हूँ मै, सभी कान्हा को रोकने का प्रयत्न कर रहे , उनके विरह में अश्रुपात  कर रहे हैं और एक कदम भी चलने को असमर्थ हैं तो मुझे इतना बल कैसे मिल रहा श्री कृष्ण के रथ के साथ साथ उड़ने का। भाग्य ने क्या मेरी उड़ान इसी दिन के लिए दी थी। माना कि मै बलहीन हूँ परन्तु क्या एक बार भी अपने प्रियतम की रुकने का आग्रह न करूँ।

    तितली उड़ती हुई रथ में बैठे श्री कृष्ण के पास आ जाती है और उनके चरणों के समीप बैठ अश्रु बहाने लगती है। करुनानिधान की करुणा कौन कहे। श्री कृष्ण इसे अपने चरणों के पास से अपने हाथ में उठा लेते हैं । एक क्षण को तो अपने आपको सौभाग्य शाली मान रही है परंतु शीघ्र ही कान्हा अपने गंतव्य की ओर अग्रसर होंगें, मैं इसी क्षण की मधुर स्मृति से ही इतने दिन व्यतीत कर लूँगी। तितली की आँखों में विरह वेदना देख जैसे प्राणेश्वर ने शीघ्र ही लौटने की मौन स्वीकृति दे दी है, इस प्रकार इस छोटे से कीट के प्राणों की रक्षा हुई है।

क्रमशः

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