वंशिका 21

जय जय श्यामाश्याम

वंशिका 21

   संध्या का समय है, श्री प्रिया कक्ष के बाहर सीढ़ियों पर बैठी है , सामने श्यामसुन्दर बांसुरी बजा रहे हैँ। श्री प्रिया उनको देखती है कभी दृष्टि अधरों पर रूकती है तो कभी बांसुरी पर। मौन सी बैठी श्यामसुन्दर को निहार रही है। एक सखी उनके पास आती है जो उनके लिए फल लाई है, श्री प्रिया उस सखी को भी श्यामसुन्दर ही समझ रही है। अभी उसे 2 श्यामसुन्दर दिख रहे फल खिलाते हुए भी वंशी बजाते हुए भी। धीरे धीरे जो जो सखियाँ युगल सेवा में आ रही हैँ श्री प्रिया को सभी श्यामसुन्दर ही प्रतीत हो रही। सब तरफ श्यामसुन्दर ही श्यामसुन्दर। कोई बांसुरी बजा रहे ,कोई फल खिला रहे, कोई बीड़ा बना रहे,कोई पुष्पमाला बना रहे कोई वाद्य बज रहे ,कोई नृत्य कर रहे,और भी न जाने क्या क्या। हर तरफ श्यामसुन्दर ही श्यामसुन्दर ।

    सच ही तो है इस अद्वितीय प्रेम में अपनी प्यारी जू की सेवा हेतु श्यामसुन्दर ही तो सब रूप ले लेते हैँ। श्री प्रिया हर और श्यामसुन्दर को पाकर अति आनन्दित है। कभी नैन मूंद लेती है तो भीतर भी श्यामसुन्दर ही नज़र आ रहे हैँ। प्रिया जू के रोम रोम में श्यामसुन्दर ही तो भरे हैँ,उनके सिवा अन्य किसी वस्तु और भाव का स्पर्श भी नहीं है। सर्वत्र ही श्यामसुन्दर,प्रेम रस में उन्मादित श्री प्रिया की ये स्थिति। पुनः पुनः नैन बन्द करती है और भीतर बाहर श्यामसुन्दर को पाकर अत्यंत आनन्दित हो रही है। श्री प्रिया की दृष्टि आकाश में चन्द्र पर पड़ती है। आहा ! आज तो चन्द्र देव भी श्यामसुन्दर लगने लगे। जाने श्री राधा के मन में क्या भाव आया अपनी चुनर से घूंघट की ओट बना ली ओर छिप छिप शशि निहार रही है। हाय!आज उन्मादिनी अपने पिया से लजाने लगी है।

आज मैं शशि से लजा गई
विशाल आकाश में अर्ध रात्रि
जो दर्श हुए शशि चन्द्र के
महकती से चांदनी के स्पर्श में
हाय आज मैं ऐसे नहा गई
आज मैं शशि से लजा गई

गहरे से रंगक आकाश था वो
बादलों में छिपे हुए शशि चन्द्र
कि मुझसे कई शरारतें उसने
बस जो मेरा हृदय लुभा गई
आज मैं शशि से लजा गई

सोचा मैं भी छिपकर देखूं तुमको
सतरंगी सी चुनर के घूंघट से
ओढ़ी चुनर तो पाया स्पर्श तेरा
मैं चुनर ही मुख से हटा गई
आज मैं शशि से लजा गई

तुम ही छिपे हो ना पिया शशि बन
नहीं मुझको आई इससे लाज कभी
आज देखा तो दिल में शहनाई बजी
तार दिल के जो मेरे हिला गई
आज मैं शशि से लजा गई

ना देखो पिया मैं लजाने लगी हूँ
फिर घूंघट में मुख छिपाने लगी हूँ
तुम छू रहे हो मुझको आह्लादित हो
हाय स्पंदन से तेरे मैं घबरा गई
आज मैं शशि से लजा गई
हाय आज मैं पिया से लजा गई

    चन्द्रमा की चांदनी में श्री प्रिया  ऐसे अनुभव कर रही है जैसे प्रियतम श्यामसुन्दर उसे स्पर्श कर रहे हों। कभी चन्द्रमा को निहारती है कभी उसके अधरों पर मृदु हंसी खेल जाती है तो कभी घूंघट में छिप जाती है। श्यामसुन्दर प्यारी जू की ये प्रेम दशा देख देख उन्मादित हो रहे हैँ। श्री प्रिया के नेत्रों को प्रियतम की और करने को उनकी वंशिका भी उन्मादिनी हुई जाती है। श्यामसुन्दर के हृदय में आह्लाद उत्पन्न होता है जो श्यामसुन्दर के अधरों द्वारा वंशिका को छू जाता है ओर वंशिका उसे प्रेम रस लहरियों के गायन द्वारा श्री प्रिया के हृदय तक ले जाती है। श्री प्रिया नैन मूंदे हुए सीढ़ियों पर बैठी है। इस प्रेमरस लहरी के स्पर्श से श्री प्रिया के नेत्र श्यामसुन्दर के नेत्रों से टकराते हैँ और दोनों हृदय व्याकुलता की चरम सीमा पार करने लगते। श्री प्रिया सीढ़ियों से उठ श्यामसुन्दर की ओर दौड़ने लगती है ओर दोनों रस बाँवरे तत्सुख हेतु रसमग्न होने लगते हैँ। वंशिका और सभी सखियाँ युगल के आनन्द से आनन्दित हैँ और उनकी रस लालसा बढ़ाती जाती हैँ।

पूनम की वो रात मधुर आकाश में चमके पूर्ण चन्द
बह रही निकुंज माँहिं सुवासित पवन अति मन्द

मिल्न बेला होय वृक्ष तमाल नीचे बनी पुष्प की शैय्या
श्यामा संग गलबहियाँ लेते मोहन कृष्ण कन्हैया

नित्य नवल प्रेम रंग बरसयो यही अभिलाष सखियन के हिय
युगल सदा रहें आनंदित प्रेममय रहें प्यारी के संग पिय

नित्य नवल प्रेममय जोरि नित्य नव नव सुख पाये
पुनः पुनः यही अभिलाष सब सखियन के मन आवे

क्रमशः

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