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जय जय श्यामाश्याम

   विरहणी तितली 1

       विरह की पीड़ा सच में बहुत कष्ट देती है। परम् भाव रूपी गोपियों ने श्री श्यामसुंदर का विरह किस प्रकार जिया है ये तितली पुनः पुनः अनुभव करती है। मथुरा से अक्रूर जी श्यामसुंदर को अपने संग लेने आये हैं। ये खबर समस्त ओर फैल चुकी है। सभी गोपियाँ चाहे वो श्यामसुंदर से कोई भी सम्बन्ध रखती हों उनके तो प्राण ही निकलने को हो गए। श्री राधा के हृदय पर किस प्रकार प्रहार हुआ होगा ये तो वही जान सकती हैं।

    श्यामसुंदर कभी ब्रज छोड़कर गए ही नहीं । युगल सदैव से ही ब्रजमण्डल में हैं। हर प्रेमी के हृदय में हैं जो अपने युगल को प्राण जानकर सर्वस्व समर्पित कर चुका है। श्यामा कभी श्यामसुंदर से अलग ही नहीं हैं परंतु उनकी लीलाएं सदैव होती रहती हैं। युगल की प्रत्येक लीला से हम मलिन मानव उनके प्रेम रस की अनुभूति कर सकें तो उनकी कृपा दृष्टि । ये तितली हृदय से युगल को सदा संग और आनन्दित देखने की लालसा करती है। इस विरह को लिख पाना भी युगल कृपा से ही सम्भव है।
 
    श्री कृष्ण अपने अग्रज भ्राता श्री बलराम संग मथुरा जाने को तैयार हो रहे हैं। सबसे पहले यह तितली वात्सल्य मूर्ति यशोदा मैया को देखती है जिसके मन प्राण केवल उसके बाल गोपाल हैं। किसी के लिए होंगें ये अखिल ब्रह्माण्ड नायक श्री कृष्ण , पर माँ के लिए तो सदैव उसका छोटा सा बालक है। उसका लाल जो उसकी इस वृद्धावस्था में उसके नैनों की रौशनी है। हाय ! किस प्रकार एक माँ अपने बच्चे को अपने से दूर जाते हुए देख सकती है। माँ के लिए तो हर क्षण मृत्यु से भी भयंकर पीड़ा देने वाला है। जब से सुना है अक्रूर जी उनके कान्हा और बलराम को मथुरा के लिए ले जाने आये हैं और वसुदेव जी ने अनुमति दे दी है माँ पर तो वज्रपात हो गया हैं। हाय ! ये तितली इस माँ की पीड़ा को किस प्रकार देख रही है। कैसे सामर्थ्य हो रहा है इस माँ के हृदय की चीत्कार सुनने का। किस प्रकार अपने हृदय की निधि किसी के हाथों में सौंप दे । क्या विधाता ने माँ को ऐसा हृदय दिया है जो अपने हृदय के टुकड़े को अपने से दूर जाने की बात पर मौन रहने दे।
    
    कल सुबह अक्रूर जी उसके कान्हा को ले जायेंगे। श्री कृष्ण को तो अपनी लीला रचनी है उन्हें क्रूर कंस को मृत्यु दंड देने है। परंतु माँ का हृदय , हाय इस हृदय की वेदना क्या जाने ये कोई बालक नहीं है ये तो कोटि कोटि ब्रह्माण्ड नायक श्री हरि अपनी लीला करने जा रहे हैं। माँ का हृदय कहाँ उनका ऐश्वर्य जानता है। यहां तो केवल वात्सल्य की मधुरिमा है जिसका रसपान करने को स्वयं श्री हरि एक बालक बने बैठे हैं। माँ संग नित्य नयी नयी लीला करते हैं उसको आनन्द दे स्वयं उस आनन्द का पान करते हैं। जानते हैं वो भीतर से उनकी माँ की क्या दशा होने वाली है परंतु बाहर से तो प्रसन्न हैं। उनको भी तो अपनी लीला को आगे बढ़ाना है दुष्टों का संहार भी उनकी लीला का एक भाग है परंतु वात्सल्य मूर्ति माँ की ये दशा इस तितली से देखी नहीं जा रही।

   क्रमशः

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