वंशिका @7
जय जय श्यामाश्याम
वंशिका 7
श्री राधा एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई हैं श्री श्यामसुन्दर की स्मृति में इस प्रकार खोई हुई है कि अपने चारों और किसी भी वस्तु किसी भी स्थिति का कोई भान ही नहीं है। ये प्रेम अनुरागिनी तो सदैव अपने प्रियतम में ही रमण करती रहती है। श्यामसुन्दर दृष्टिगोचर तो नहीं हो रहे परन्तु उनकी स्मृति श्री प्रिया के हृदय में इस प्रकार है कि उन्हें अपने भीतर ही अनुभव कर रही है। ब्राह्य रूप से मौन है अव्यक्त परन्तु भीतर सदैव अपने प्रियतम संग ही है। एक क्षण भी प्रियाप्रियतम का वियोग नहीं है।
एक सखी श्री प्रिया जू को पूछती है प्यारी जू आज इतनी मौन क्यों हो। श्यामसुन्दर आज बहुत विलम्ब किये न अभी आ ही रहे होंगें तुम धैर्य रखो। सखी सोचती है श्री प्रिया कहीं श्यामसुन्दर के वियोग में अधीर न ही जाएँ परन्तु श्री प्रिया तो हर क्षण उन्हें अपने संग ही पा रही है। उनकी स्थिति कुछ इस प्रकार है।
मैं नित्य प्रियतमा हूँ उनकी
मुझमें रहते मेरे प्रियतम
मैं उनकी सदा वो सदा मेरे
यही बात मुझे कहते प्रियतम
नहीं मुझसे कभी पृथक कभी
मुझमें ही रहते मेरे प्रियतम
बन कर रस की धार सदा
मुझमें बहते मेरे प्रियतम
नहीं दूर कभी मुझसे होते
हैं कितने पास मेरे प्रियतम
मैं प्रियतम की प्रियतम मेरे
हम नित्य मिले रहते प्रियतम
नहीं पल भी वियोग कभी मुझसे
हैं संग सदा रहते प्रियतम
कभी हृदय की प्रेम पुकार बने
मुझसे मिलते रहते प्रियतम
नहीं दूर हुए एक क्षण को भी
हैं संग सदा रहते प्रियतम
मेरे प्रियतम मेरे कान्हा जू
तुम मेरे हो मेरे प्रियतम
कुछ ही समय पश्चात श्री श्यामसुन्दर वहां आ जाते हैं और श्री श्यामा की इस प्रेम स्थिति को देखते हैँ। श्यामसुन्दर अपनी बान्सुरी हाथ में लेते हैँ और कोई संगीत लहरी छेड़ना चाहते हैं जिससे श्री प्रिया पुनः चेतन हो सके। बांसुरी को अधरों पर धारण करते हैं और बांसुरी भी प्रियतम के प्रेम संदेस श्री प्रिया तक ले जाने को आतुर हुई जा रही है। प्रियतम के प्रेम नाद से समस्त दिशाओं में प्रेम झरने लगता है श्री प्रिया तो इस प्रेम सागर में उतरती ही जा रही हैँ अपने हृदय में ही श्यामसुन्दर को बांसुरी बजाते देख प्रेम लहरियों में बही जा रही है। श्यामसुन्दर देखते हैं कि आज तो बांसुरी की ध्वनि सुन भी श्री प्रिया चेतन न हुई। श्यामसुन्दर श्री प्रिया को स्पर्श करते हैँ परन्तु आज उनके स्पर्श से भी श्री प्रिया को कुछ प्रभाव न हुआ वो तो श्यामसुन्दर को अपने रोम रोम में भरे बैठी हैँ। जैसे श्यामसुन्दर तो एक क्षण के लिए ही बाहर नहीं हैं। श्यामसुन्दर श्री राधा की इस प्रेम दशा को देख व्याकुल हो जाते हैँ। श्री श्यामा का प्रेम कितना अद्भुत है इनके प्रेम की अनुभूति कितनी दिव्य है । हे स्वामिनी जू ! मैं तो सदा सर्वदा अयोग्य हूँ तुम्हारे इस प्रेम के आगे तो मेरा प्रेम शून्य ही है । मैं अपने आप को आप पर न्योछावर करके भी आपके इस ऋण से मुक्त नहीं हो सकता प्यारी जू। श्री श्यामसुन्दर के अश्रु जैसे ही श्री प्रिया को स्पर्श करते हैँ श्री प्रिया अपनी भाव अवस्था से बाहर आने लगती है। श्री प्रिया श्यामसुन्दर के अश्रु कभी सहन ही नहीं कर पाती । भीतर समाये हुए श्यामसुन्दर के हृदय के भाव उनसे छिपे तो नहीं हैं। श्यामसुन्दर को अपने सन्मुख पाकर उनके आलिंगन में भर जाती है। आज अपने प्रिया प्रियतम के प्रेममयी क्षणों की द्रष्टा ये बांसुरी हुई है जिसके रोम रोम में अपने श्री युगल की सुख लालसा भरी हुई है।
क्रमशः
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