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जय जय श्यामाश्याम

विरहणी तितली 2

अभी ये तितली उड़ती हुई वन की ओर गयी है जहां श्री प्रिया एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई है। बैठी ही क्या बस प्राणों को जैसे तैसे रोके हुए है। जब से सखियों से सुना है श्यामसुंदर मथुरा जा रहे हैं श्री प्रिया निष्प्राण हुई जा रही है। मौन है बाहर से वाणी भी आज श्री प्रिया की वेदना कहने को हार चुकी जैसे। प्रियतम प्राणवल्लभ बिना अपने प्राण कैसे रखेगी श्री प्रिया। श्यामसुंदर की प्रतीक्षा में बैठी हुई है , हृदय में उठती हुई तरंगें पता नहीं क्यों श्री प्रिया को मौन किये बैठी हैं। आँखों से जैसे अश्रु ही न हैं जिव्हा भी वाणी हीन हुई जा रही है। तितली श्री प्रिया की इस स्थिति को देख आश्चर्य चकित हो रही है।

    श्री प्रियाप्रियतम का नित्य संयोग है। श्री हरि अपनी आह्लादिनी शक्ति संग सदैव ब्रजमण्डल में रमण करते हैं। ब्रज भूमि का एक एक कण युगल प्रेम की मधुरिमा में डूबा हुआ है। विरह की लीला तो केवल लोक कल्याणार्थ ही हो रही है। पृथ्वी पर दुष्टों के संहार हेतु श्री कृष्ण नयी नयी लीला रचते हैं। ब्रजराज कभी ब्रज छोड़कर गये ही नहीं । मथुरा गमन केवल उनकी एक लीला ही है। हमारे युगल सदैव आनन्दित सदैव प्रेम रस में पगे हुए रहते हैं परंतु बाहरी रूप से लीला हेतु ही संयोग वियोग चलता रहता है।

  तितली श्री प्रिया के इर्द गिर्द ही घूम रही है। तभी श्यामसुंदर वहां आते हैं और श्री प्रिया की ये स्थिति देखते हैं। श्री प्रिया के नेत्र खुले हुए हैं एक ही जगह रुके हुए हैं मानो स्वयं का कोई अस्तित्व ही न हो। कोई बोध ही न रहा अपनी देह का , अपने प्राणों का। श्री प्रिया की समस्त वृत्तियाँ जैसे श्यामसुंदर में ही लीन हो चुकी जैसे , और सत्य ही तो है प्रिया का प्रियतम बिन ओर प्रियतम का प्रिया बिना कोई अस्तित्व ही नहीं है। सदैव अभिन्न सदैव एकरूप। तभी श्यामसुंदर वहां आते हैं तथा श्री प्रिया की दशा देख जान चुके हैं कि किसी सखी ने श्यामा को मेरे जाने की बात बता दी है। श्यामसुंदर भी श्री प्रिया को चैतन्य अवस्था में लाने को व्याकुल हो रहे, परन्तु उनकी हिम्मत न हो रही। अभी तक तो मौन बैठी है जाने मुझे देखकर क्या दशा हो इसकी। क्या मैं देख भी पाऊंगा , नहीं नहीं मैं लौट ही जाता हूँ। परन्तु एक बार तो अपनी प्राणप्रिया को देख लूँ। मेरे नयन कभी इनकी रूप माधुरी का पान करते हुए न अघाते , परन्तु आज इन नेत्रों को भी सामर्थ्य नहीं हो रहा प्रिया जु की और देखने का। ये तितली कभी श्याम तो कभी श्यामा को देखती है , ऐसी दशा तो पहले कभी न देखी। हाय ! विधाता मुझ छोटे से जीव को युगल को निहारने का अवसर मिला है वो भी जब इनकी विरह स्थिति हो रही है। हाय ! मेरे पंखों में जान तो इसलिए मांगी कि अपने युगल की वस्तु हूँ इनसे दूरी न रहे परन्तु ये दृश्य तो मेरी कल्पना में भी नहीं था।

बन जाती तितली छोटी सी
पंखों में पर जान नहीं
कभी तुम्हें छू भी पाऊँगी हाय
ऐसी मेरी उड़ान नहीं

रंग बिरंगे पंख मेरे हाय कभी
तुम भी कभी देख पाते
नाच नाच रिझाऊँ कभी तुमको
अरमान दिल में रह जाते

कभी देखती फूल मैं भी तुम्हारे
आस पास जो हैं बिखरे
कभी सजाती वो रंग आँखों में
हर ओर जो रहे निखरे

जानती हूँ नहीं हूँ प्रेमी कोई
ना ही हृदय कोई प्रेम पिपासा
पर जाने क्यों हृदय बहता है
करता है जाने कोई आशा

जगत के फूल लगते कागज़ अब
कोई रस नहीं इनसे आता
तेरे चरणों में जो हों पुष्प समर्पित
मुझे उनका ही संग भाता

दूर न रखना मुझको प्यारे अब
दूरी हृदय न ये सह पायेगा
अथाह वेदना मन में उठती है
सब अश्रु संग बह जायेगा

हूँ तितली मैं तेरे गुलशन की
पर इतनी मेरी उड़ान नहीं
तुम ही आकर संग रखना
मेरे पंखों में इतनी जान नहीं

अभी तितली भी विरह व्यथा कहने की सामर्थ्य खो रही है।

क्रमशः

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