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जय जय श्यामाश्याम

विरहणी तितली 3

श्री श्यामसुंदर श्री प्रिया के सामने खड़े हैं , श्री प्रिया जड़वत बैठी है । श्यामसुंदर यह भी नहीं समझ पा रहे कि प्रिया जु को संबोधित भी किस प्रकार करूँ। मन में यही प्रश्न उठ रहा क्या प्रिया को मेरे जाने की सूचना मिल चुकी है। हाय ! किस प्रकार श्यामा को बुलाऊँ, आज तो श्यामसुंदर भी जैसे हिम्मत हार चुके हैं। बहुत देर ऐसे ही खड़े अपनी प्यारी जु को निहार रहे जैसे सोच रहे हों कि फिर पता नहीं कब ऐसे प्रिया जु को निहार सकूँ। श्री प्रिया को तो जैसे चेतना ही नहीं है बस खुली हुई आँखों से पथराई सी बैठी है , ऐसी बात से तो हृदय पर वज्रपात हो चुका, अब इसकी जड़ता को कैसे हटाया जाए।

    तितली कभी प्रिया जु की दशा देखती है तो कभी श्यामसुंदर की विवशता। हाय ! इस क्षण को जीना कितना कठिन हो रहा है सबके लिए। श्यामसुंदर बहुत संकोच के बाद आवाज़ लगाने लगते हैं परंतु मन में जैसे अपराध की भावना उठ रही है, अपनी प्राण प्यारी को छोड़ किस प्रकार जा पाऊंगा मैं। कितना कठोर कितना निर्दयी हूँ मै। मुझे अपनी लीला में इस क्षण को भी जीना था। श्यामसुंदर कहते हैं स्वामिनी जु ! मुझे आज्ञा न दोगी जाने की। श्री राधा तो जैसे प्राणहीन हुई पड़ी है , प्राणधन के जाने का पता पड़ने पर से ऐसी दशा हुई पड़ी है जैसे कैसे सखियाँ उसे इस कदम्ब वृक्ष तक छोड़ गई हैं ताकि प्यारी जु को श्यामसुंदर की स्मृति बनी रहे। बहुत प्रयत्न के बाद श्यामसुंदर श्री श्यामा की चेतना लौटा पाते हैं। स्वामिनी जु !  यह शब्द कर्णपुटों में जाते ही श्री प्रिया नैन श्यामसुंदर की ओर उठाती है उनके वक्ष स्थल से लिपट जाती है , जैसे ही श्यामसुंदर श्री प्रिया को अपनी भुजाओं में आलिंगित करते हैं श्री प्रिया मूर्छित हो जाती है। श्यामसुंदर के अंक में ही विरह मूर्छित श्री प्रिया को देख तितली भी अपने प्राणों को कैसे सम्भाल सकेगी।

     श्री प्रियाप्रियतम सदैव अभिन्न हैं परंतु लीला शृंखला को तो विराम नहीं दे सकते। श्री श्यामसुंदर की अनेक चेष्ठाओं के पश्चात श्री प्रिया की चेतना लौटती है। श्यामसुंदर तुम चले जाओगे ? यही प्रश्न श्री प्रिया के नेत्रों में है , इतनी भी क्षमता नहीं हो रही कि अधरों से कोई शब्द भी उच्चारण कर सके। नेत्रों से अश्रु प्रवाह आरम्भ हो चुका है परंतु वाणी का साहस नहीं हो पा रहा। इतने प्रगाढ़ प्रेम में शब्दों की भी क्या आवश्यकता है, प्रियतम तो सदैव प्रिया के रोम रोम में रमण करते हैं फिर अपनी श्री प्रिया के हृदय की स्थिति से कैसे अनभिज्ञ रहेंगें। श्री प्रिया के मुख से केवल एक ही शब्द निकलता है, श्यामसुंदर । इसके पश्चात न तो वाणी का सामर्थ्य हो रहा है और न ही आवश्यकता प्रतीत हो रही है।

    श्री प्रिया और श्री श्यामसुंदर एक दूसरे के अंक में समाए हुए ही इस मिल्न के क्षण में खोये जा रहे हैं। रसराज और रसीली जु रसमयी हुए जा रहे हैं ,तितली अपने श्री युगल के आनन्द से आनन्दित है।

   क्रमशः

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