गुस्ताख हुँ
गुस्ताख हूँ गुस्ताखी बन गयी आदत मेरी
है वजूद मेरा भरा गन्दगी से कैसे हो इबादत तेरी
गुस्ताख हूँ.......
शमा के बदले दिल जलाए हैं मैंने
जाने कितने अरमान मिटाए हैं मैंने
यूँ ही जीना क्यों हो गयी आदत मेरी
गुस्ताख हूँ.......
है अंदाज़ा की कितनों को जख्म दिए मैंने
जाने कितने गुनाह मौला किये मैंने
तू बता पाऊँ कैसे मैं मोहबत तेरी
गुस्ताख हूँ.......
दे सज़ा ये ही मुझे कि यूँ ही तड़पती रहूँ
दर्द से भर जाए दिल पर ना किसी से कहूँ
उम्र भर महरूम रहूँ ना मिले कभी मोहबत मेरी
गुस्ताख हूँ.....
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