दर्द बढ़ जाता है
दर्द बढ़ जाता है तो बिखरता है चन्द लफ़्ज़ों में
और वो लफ्ज़ भी तेरी खुशबू से महकते हैं
हम कैसे रोकें इन बेकाबू हुए जज़्बातों को
ये तेरा नाम लेने पर ही क्यों बहकते हैं
रात भर बेचैन से हम रहते हैँ क्यों अक्सर
क्यों अश्क़ इन आँखों से फिर बहते हैं
कोई लेता है सिसकियाँ मेरे भीतर ही
और उसके साथ मिल कर क्यों हम सिसकते हैं
क्यों नहीं सम्भलता दिल बेकाबू हुआ जाता है
क्यों इतने रंगीन से अरमान बिखरते हैं
यूँ तो मेरे नाम का शख्स गायब है मुद्दत से ही
क्यों तेरे दीदार की हम हसरत रखते हैँ
तू नहीं नज़र आता हमें पर देखता तो होगा
इसी उम्मीद में तेरे ख्याल से हम सजते हैँ
Comments
Post a Comment