दर्द की बस्ती
मैं तो दर्द की बस्ती का एक बाशिंदा हूँ
गम तो ये है अब तलक क्यों ज़िंदा हूँ
नहीं किस्मत में मेरी शायद वफ़ा तेरी
जो भी हो कबूल है साहिब ये अदा तेरी
हाँ मुझे उम्र दराज़ यूँ ही बस सिसकना है
रूह को तड़पना और आँखों को बरसना है
ये ही अरमान है तेरा तो ये कबूल किया
अब तलक ज़िन्दगी को मैंने यूँ ही फ़िज़ूल किया
जाने क्यों लब पर तेरा नाम ही नहीं आता
जाने क्यों दर्द इस दिल से नहीं जाता
आ दिखाऊँ मेरे दिल में कितने छाले हैं
हम कौन सा साहिब तुझे भूलने वाले हैं
चलो तुम ये भी इम्तिहान लेना चाहते हो
दिल छोड़ अब तुम मेरी जान लेना चाहते हो
हम तो यूँ ही उम्र भर तुझे सज़दा करेंगे
इश्क़ का पता नहीं साहिब पर इंतज़ार करेंगें
जाने कभी तेरा मन भी मिलने को हो जाए
जाने कब तेरी भी कभी निगाह हो जाए
खेल ले जैसे भी साहिब तेरे गुलाम हैं अब
मेरी ये रूह तलक भी तेरे ही नाम है अब
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