नाकाबिल सही
तेरे बिन गुज़रे जो लम्हें
वो जीना नही सज़ा है
तेरे बिना जिन्दा रहूँ क्यों
नहीँ इसमें कुछ मज़ा है
एक नज़र से ही घायल किया
कैसी ये तेरी अदा है
कभी दूर कभी पास है क्यों
शामिल है या जुदा है
क्यों इतना बेकरार करते हो
हुज़ूर किस बात से खफा हैं
मना लूँ जश्न बर्बादी का ही
नाकाबिल सही पर फनाह है
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