मेरे गुनाह

मैंने क्या इश्क़ किया तुझसे
पर तेरे इश्क़ सा इश्क़ कहाँ

जब जब डूबी मैं अश्क़ों में
तूने सम्भाला मुझे हमेशा वहां

मेरी कितनी गुस्ताखी पर भी
तूने मुझको गले लगाया है

मैं रही हमेशा जिस हाल में भी
तेरा साथ सदा ही पाया है

हैँ लाखों ऐब गुनाह मेरे
नाकाबिल को अपनाया है

क्या बयान करूँ तेरी इनायतें
मेरे लफ़्ज़ों में कहाँ दम हैँ

शर्मिंदा हूँ अपने गुनाहों से
मेरे गुनाह भी तो कहाँ कम है

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