शरण में लो इक बार
विनती करूँ मनमोहन कान्हा
नाथ मोहे लीजो उबार
शरण पड़ी तेरी गिरधारी
काहे सुधि दीनी बिसार
कान्हा !
शरण में लो इक बार
जब तक दरस ना दोगे नाथ मोहे
कैसे जानू तुम आये
बड़े भाग होय उन भक्तन के
जो तेरो दरसन पाये
मैं दुखिया तेरी राह निहारूँ
दरसन दो इक बार
कान्हा !
शरण में लो इक बार
बिछड़े जन्मों बीत गए हैं
नाथ क्यों मुझे भुलाया
पतितपावन है नाम तुम्हारा
पतितों को अपनाया
मैं बैठी तेरी चौखट पर
विनती कर रही हार
कान्हा !
शरण में लो इक बार
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