राह ए इश्क़

तेरे इश्क़ में ये क्या मुकाम आया
की खुद को भूल तेरा ही नाम आया

कोई जब पूछे मुझसे क्या पता है तेरा
मेरे लबों पे तेरे घर का ही नाम आया

ना सह पाये की तुझको कोई तकलीफ भी हो
खुद अपने ही सर पर ये इलज़ाम आया

क्या ये भी दौर मोहबत के हैं साहिब
की खुद को खोकर ही हमने तुझको पाया

जब तू था जिक्र नहीं था मेरा कहीँ
अब तू नहीं खुद को वहीं खड़ा पाया

ये भी उल्फ़त के इम्तिहान ही हैं सब
राह ए इश्क़ मखमली समझे खुद को छिला पाया

पर हर जख्म से बहा लहू तेरा नाम ले
इसलिए इस राह को भी मैंने सज़दा किया

हर उस शै को किया सज़दा जो तुझसे जुडी
हर उस शख्स को सलाम जिसे तेरा नाम लिया

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