जगन्नाथ जी

सड़क के किनारे बहुत लोगों की भीड़ और शोर गुल बस की प्रतीक्षा में खड़ी मेरी आँखें जाने क्या ढून्ढ रही थी । कभी चारों और शोर विशाल जन समूह बस गाड़ियां आज ये सब मन को व्याकुल किये। तुम कहाँ गए कहाँ हो तुम  तुम तो कभी जाते नहीं । किसी न किसी रूप में संग ही रहते हो। कभी याद बनकर कभी तड़प बनकर कभी हवा बनकर कभी अश्क़ बनकर। आज तुम कहाँ हो। बस प्यासी नज़रें आज तुम्हारा पता नहीं खोज पाई। क्या हुआ इन आंखों को जो तुम्हें देख नहीं पाई। तुम्हें छु नहीं पाई।
तभी अचानक दृष्टि गयी सामने। आहा तुम । आ  गए प्यारे। यूँ तो लोग तुम्हें सड़क पर टँगी हुई एक छवि समझते। एक बोर्ड जो बता रहा जगन्नाथ रथ यात्रा 18 को। हाय ! पर मेरे लिए तुम ही हो उस प्यासी नज़र में तुम ही उतरे मेरे मोहन। कितना अद्भुत रूप। वो आँखें वो श्रृंगार वो मुकट बस नज़र ही नहीं हट रही थी। जाने कैसी प्यास है ये 2 नेत्रों से कहाँ तुम्हें पी सकूँगी। हाय कितनी देर प्यासी नज़रें तुममें ही खो गयी। कभी कभी शोर गुल व्यथित किया या कोई हिलाया मुझे कहाँ खो गयी तो पीड़ा हो रही थी। हाय ! तुम तो प्यासे को और प्यासा करोगे क्या अब तुम्हें देख भी न सकूँगी। पता नहीं वो बस की प्रतीक्षा थी या तुमसे कुछ क्षणों का मधुर मिलन। भर लिया तुमको आँखों में । कुछ देर और जीवन जीने की हिम्मत हुई इस प्रतीक्षा में कि तुम पुनः आओगे। आओगे न मेरे नाथ।

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