एकहुँ सखी कहे
एकहु सखी कहे मोहे बाँवरी अपनो बिरह दे मोय ।
कैसो अपनो बिरह दीजो सखी या मेरो धन होय ।।
विरह माँहि जरन को राखूं सखी निज देह में प्राण ।
कबहुँ मेरो विरह को मेटे मेरो मिले पिया मोहे आन ।।
ऐसो विरह अग्न बढ़ी जावे जर जावे मेरो देह ।
तबहुँ ना छाड़ूँ सखी हिय सों प्रियतम का स्नेह ।।
बलिहारी मैं या विरह की जो पिया से देय मिलाये ।
प्राण तजे आस हिय रखे अबहुँ पिया मेरो आये ।।
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