प्रेम क्या है

प्रेम क्या है
अश्रु पीड़ा आहें ही
विरह की पीड़ा कितनी
कि प्राण भी नहीं जाते
इस आशा में
कि तुम आओगे
हर बार प्रेम में यही हुआ

मैं मीरा बनी नेह किया
इस जगत ने सदा सन्देह किया
तुमको अपना गिरधर मान लिया
तुम ही रीझो ये गान किया
सब छोड़ा गिरधर तेरे लिए
मुख मोड़ा गिरधर तेरे लिए
सदा रही विरह की पीड़ा में
नाता तोडा गिरधर तेरे लिए
पर मेरे हिस्से क्या आया
वही अश्रु पीड़ा आहें ही

तुम गौर बने मैं प्रिया तेरी
तुमने कब सुधि ली हरि मेरी
तुम नाम का अलख जगाने लगे
क्या जानो पीड़ विरह मेरी
तुम सब जग के आधार बने
मेरा आधार तुम्हारे चरण कमल
तुम अपनी प्रेम परीक्षा में ही
मैं अपने प्रेम में रही विकल
पर मेरे हिस्से क्या आया
वही अश्रु पीड़ा आहें ही

तुम श्याम मेरे मैं श्यामा तेरी
ब्रज छोड़ गए तो विरह घेरी
रही व्याकुल हृदय में भरी हुई
अश्रु पीड़ा और आहें ही

कभी मुझे भी प्रेम के कुछ कण मिले
कभी विरह तपन के कुछ क्षण मिले
देना मुझे विरह यदि प्रेम तुम्हें
मैं कहाँ कर पाऊँ स्नेह तुम्हें
मेरे हिस्से की भी कुछ दे दो
अश्रु पीड़ा और आहें ही

अब जाना प्रेम प्रसाद विरह
तुम उसको ये देते मोहन
जिससे तुम जितना प्रेम करो
यही विरह प्रेम का बने साधन

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