उधेड़ दूँ लाश को

दिल करता है उधेड़ दूँ इस लाश को
क्यों सांसों का बोझ उठा रखा है
मैं हैरान हूँ क्यों मैं अब तलक जिन्दा हूँ
क्यों खुद को यूँ तमाशा बना रखा है

नहीं ये ज़िन्दगी तो न थी मंजिल मेरी कभी
ग़र होती तो मुझे पल पल का सुकून होता
यहाँ लम्हा लम्हा है बस दर्द भरा
न मुझे खुद को भुलाने का जूनून होता

महबूब मेरे तुझसे भी सब गम छिपा लूँ
आज खुद को इस दर्द के समंदर में डूबा लूँ
तुम नहीं आना देखो मैंने ना पुकारा तुमको
मुझको ये दर्द ही प्यारे हैँ इन दर्दों को सजा लूँ

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