एक बूँद

मैं बन गयी
ओस की बूँद एक
जो कहीं गिरी मिले तुझे
किसी एक पत्ते पर
तेरे ही शहर में
किसी एक पौधे की शाख पर
विरह की तीव्र वेदना
सूर्य की गर्मी सी
नित्य सुखा देती मुझे
सूर्य के ताप से नित्य
लुप्त हो जाती हूँ
फिर चांदनी के स्पर्श से
पुनः मेरे प्राण लौटते
लौट आती हूँ मैं
उस शीतल स्पर्श से पुनः
जो तेरे ही रस से शीतल है
साँझ पड़े मेरा नित्य लौटना
होता है
पुनः पुनः उसी पत्ती पर
वही तो मेरी ठौर है
हाँ रहती हूँ मैं
तेरे ही शहर में
ओस की बूँद बन
भोर साँझ आती जाती
तेरी ही प्रतीक्षा में
तुम आओगे कभी
कभी तुम्हारे हाथों का स्पर्श मिलेगा
आहा !
कैसे प्राण रखूँगी
उस स्पर्श के पश्चात
वहीं रह जाऊँगी
तेरे हाथों में ही
नमी की एक बूँद बन
खेलना मुझसे तुम
या मुझे चढ़ा देना
अपने देव के चरणों में
वहीं रह जाऊँ मैं
मैं हूँ ओस की इक बूँद
यूँ ही रहे मेरा जीवन
नित्य तेरी प्रतीक्षा में
नित्य तुझे पुकारते
जानती हूँ
तुम सुन रहे हो
आओगे तुम
आओगे ना

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