तेरी इनायतो को

जब तेरी इनायतों को देखा मैंने
दिल मेरा ज़ार ज़ार रोता है
तुमने तो औकात से बढ़कर दिया मुझको
और मुझसे कभी शुक्राना भी न होता है

कैसे कहूँ कुछ तुमको किस जुबान से कहूँ
अब ख़ुद से ही छिपने की मेरी हसरत है
हाँ मुझे एहसास है तेरी मोहबत का
कैसे कह दूँ मुझे भी तुमसे मोहबत है

काश ए वक़्त तेरा भी कोई पर्दा होता
मैं तेरे पर्दे में ही छिपने को बेकरार हूँ
इश्क़ कभी कर भी सकूँ इतनी नहीं उम्मीद मुझे
मैं ख़ुद अपने ही किये से शर्मसार हूँ

ना कभी होंठों से नाम भी लिया तेरा
ना कभी इस दिल ने तेरी इबादत की है
सच्ची है या झूठी है ये भी तू ही जाने
क्या मैंने कभी तुझसे कितनी मोहबत की है

Comments

Popular posts from this blog

भोरी सखी भाव रस

घुंघरू 2

यूँ तो सुकून