विरह पद

या तो जला दीजिये इस इश्क़ की आग में मुझे
या फिर मेरा वजूद ही मिटा दो
यूँ जलना ही फ़ितरत हो चुकी अब मेरी
मेरे महबूब अपने हाथ से जला दो

कैसे रोकूँ दिल में उठते हुए तूफानों को
तू ही बता तुझे तो मुझसे इश्क़ यार मेरे
मुझे कोई इल्म नहीं कैसे करूँ मैं इश्क़ कभी
हूँ क़ाफ़िर कहाँ है फितरत में कोई प्यार मेरे

जलना ही नसीब हो चुका है इश्क़ में मेरा
मुझे अब ग़म में जीने की आदत हो चुकी
दे महबूब थोडा और गम दे मुझे
अश्क़ो को पल पल पीने की आदत हो चुकी

बेकरार रहूँ इस क़दर कि मुझको कोई सुकून न मिले
क्यों मुझको तुझसे अभी तलक इश्क़ ना हुआ
जो होता इश्क़ तो तेरे नग़मे गाती मैं
ना होती आह दिल से निकलती कोई दुआ

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