बूँद@

संध्या का समय हो चला। मन्द मन्द समीर प्रवाहित हो रही है। सूर्यदेव अपनी प्रचण्ड अग्नि समेटे हुए पश्चिम दिशा में विराज चुके हैँ। इस प्रेम साम्राज्य में चन्द्र देव का आगमन हो चुका है। उनकी रसभरी शीतल चांदनी ही हर और खिलखिला रही है। समस्त जड़ चेतन जैसे मृदु मृदु मुस्कान बिखेर रहे हैँ। प्रसन्न भी क्यों न हों उनके प्राणधन श्री युगल को आनन्दित करने को समस्त जड़ चेतन सदैव लालायित रहते हैं। ओस की बूँद जो सूर्य के ताप से विरहित हो चुकी थी पुनः उसमें शीतल चांदनी प्राणों का संचार कर चुकी है।

   उस पत्ते पर बैठ हर और चांदनी में सिमटी हुई सुंदरता निहार रही है। क्या ये सम्पूर्ण व्यवस्था हमारे प्राणधन श्री युगल का सुख वर्धन कर सकेगी। पवन की मधुर मधुर शीतलता युगल में प्रेम रस का संचार करेगी। श्यामाश्याम की सुंदरता तो कोटि कोटि चन्द्र को लज्जित करने वाली है पर आकाश में विराजित चन्द्रदेव की चांदनी में श्री युगल एक दूसरे को निहारेंगें तो ये चंद्र भी अपने सौभाग्य पर इठलायेगा ही। इस मधुर चांदनी और सुगन्ध भरी शीतल पवन में प्रियाप्रियतम गलबहियां डाले हुए इस और से निकलेंगें। ये ओस की बूँद प्रतीक्षा में उसी पत्ते पर बैठी है।

    इस बूँद के मन में पुनः पुनः भाव लहरियां उठ रही हैँ। मैं तो एक छोटी सी बून्द हूँ क्या मेरा अस्तित्व ऐसा होगा कि मैं बह जाऊँ वहां तक पहुंच जाऊँ जहाँ मेरे युगल हों। उनके चरणों को स्पर्श कर उन्हें शीतलता दे सकूँ। हाय ! मेरा दुर्भाग्य ही है मैं क्यों अपने प्रियाप्रियतम से दूर हूँ। ये सोच बून्द अश्रु बहाने लगती है। कभी ऐसे सम्भव होता मैं अश्रुओं संग बह ही जाऊँ। अपने युगल का सुख सम्पादित कर सकूँ। अपने युगल की उदारता और अपनी असमर्थता पर ये बूँद रुदन कर रही है और हृदय में अपने प्राणधन के सुख की कामना करती हुई प्रतीक्षा करती है।

   जय जय श्री राधे

Comments

Popular posts from this blog

भोरी सखी भाव रस

घुंघरू 2

यूँ तो सुकून