ईश्वर प्रेम #
ईश्वर प्रेम हैँ । ये प्रेम इस जगत में सर्वत्र है। हर और बह रहा है बरस रहा है क्योंकि सम्पूर्ण जगत में ईश्वर से अभिन्न कुछ है ही नहीं। ज्ञान से देखें , तत्व से देखें या प्रेम से , है वही सब वही है। और ये प्रेम हम सबके भीतर भी उतरा हुआ है। गहरा उतरा हुआ । क्योंकि हम इस स्पर्श से अलग तो हुए नहीं। पर हमने स्वयम् को कैसे ढक रखा है । उन्हीं की कृपा से पथ खुलता है और धीरे धीरे इस पथ के पथिक उन्हीं के पास लौटने लगते हैँ यही इस यात्रा की सम्पूर्णता है ,कि उन्होंने चाहा तो हमारे दिल में उनकी चाहत उठी , उठती उठती बढ़ती ही गयी। प्रेम ऐसा तो नहीं है जो हो गया और कम हुआ फिर बढा फिर ठप्प। ये तो वो प्यास है जो लगते लगते बढ़ती ही जा रही , जाने कब बुझेगी । अब और प्यासा मत रखो । रह जाओ तुम सिर्फ तुम सिर्फ तुम । तुम्हारे सिवा ये आँखें किसी को न देखे। किसी को न सुनें । किसी को न छुएं। तुम ही हो न हर और हाँ मेरे दिल से पूछो। तुम ही हो मेरे हो तुम सिर्फ तुम । मुझमें ही समाये मेरी ही प्यास सर्वस्व तुम । मेरे कान्हा
मत धड़कनों को छेड़ो अश्कों में भी सिर्फ तुम हो
नहीं इख्तयार रहा अब बस हर तरफ ही तुम हो
कैसे तुम्हें न देखूं मेरी नज़र में तुम हो
कैसे तुम्हें सुनूँ न मेरी धड़कनों में तुम हो
कहाँ तुम से मैं छिपु अब मेरी साँस बने तुम हो
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