घुंघरू 8

8

                श्री जू को इस प्रकार आनन्दित देख श्यामसुन्दर कृष्ण भी आनन्दित हो जाते हैँ। अपनी प्रियतमा राधा के अद्वितीय प्रेम पर बलिहारी जाते हैँ। नित्य ही वे किशोरी जू के नवल प्रेम का आस्वादन करते हैँ।

             कुछ देर बाद श्री जू की  स्थिति और भी विचित्र पाते हैं । उनका रोम रोम कृष्णमयी है परन्तु वो ये अनुभव करती हैं कि कृष्ण से वो कभी मिली ही नहीं हैं। सखी ये कृष्ण कौन हैं ?कैसे हैं ? क्या तुमने इनको देखा है ? मुझे इनके नाम से ही जाने क्या हो रहा है। देखो ये मेरे कंगन कृष्ण कृष्ण ही पुकारते हैँ। मेरी नुपुर के घुँघरु ये भी उन्मादित हो रहे। इनको भी कृष्ण कृष्ण के सिवा कुछ सूझता ही नहीं है। देखो हर ध्वनि केवल कृष्ण कृष्ण कृष्ण .......मुझे कुछ और सुनाई ही नहीं दे रहा। नुपुर का प्रत्येक घुंघरू श्री जू के सुख हेतु सदैव कृष्ण कृष्ण नाम ही करता है।

   सखी मुझे बताओ ये कृष्ण कौन हैं मेरा मन बलात् ही अपहरण किये हुए हैँ। क्या किसी को बिन देखे बिन जाने भी ऐसे हो जाता है। मुझे इनके सिवा न कुछ अच्छा लग रहा है न ही कुछ सूझ रहा है। श्री राधा कृष्णसिन्धु में ऐसी डूबी हुई हैँ की उन्हें और कुछ लगता ही नहीं है।

    इस सिंधु से विभिन्न तरंगे प्रवाहित हो रही हैं । कभी कृष्ण कृष्ण कहती कहती मूर्छित हो जाती हैं । पुनः चेतन होती हैँ तो कृष्ण कृष्ण को ही पुकारती हैं। कभी कभी अनुभव करती हैँ की कृष्ण बाहर आ गए हैं सहसा बाहर की और दौड़ पड़ती हैं । कभी कभी टकरा कर गिर पड़ती हैँ। सखियाँ उन्हें इस स्थिति से बाहर लाने की बहुत चेष्ठा करती हैँ । नुपुर भी अपनी स्वामिनी जू के हृदय में उठने वाली सभी भाव तरंगों को देखती है और यही तरंगें सभी घुंघरुओं मणि माणिकों का हृदय भी स्पर्श करती हैँ।

   राधा पुनः चेतन होती हैं और एक सखी को अपने सन्मुख देखती हैं और उसे ही कृष्ण मान लेती हैं। कृष्ण तुम आ गए इतनी देर तक तुम कहाँ थे। देखो कब से तुम्हें पुकार रही हूँ । सखी से लिपट जाती हैं और जोर जोर से कृष्ण कृष्ण कह रोने लगती हैं । सखी उन्हें कहती है राधे राधे देखो तो मैं तो तुम्हारी सखी हूँ मैं कृष्ण नहीं हूँ। रोते हुए पुनः सखी की और देखती हैं और कहती हैं नहीं नहीं तुम कृष्ण ही हो। देखो तुम ही कृष्ण हो मुझ से छिपो नहीं कह दो तुम ही कृष्ण हो। पुनः रुदन करती करती मूर्छित हो जाती हैं। पता नहीं उनकी ये स्थिति कब तक रहने वाली है। श्री जू के मूर्छित होते ही नुपुर और घुंघरू भी शांत हो जाते हैँ परन्तु उनके हृदय में पुनः पुनः एक ही लालसा होती है कि स्वामिनी जू की चेतना लौट आवे और उन्हें कृष्ण नाम ही सुनाते रहें।

      कभी कभी तो प्रिया जू की स्थिति और भी विचित्र हो जाती है। कभी किसी सखी को कृष्ण अनुभव करती हैँ तो कभी स्वयम् को ही कृष्ण मान बैठती हैँ।

पिय पिय रटत ही मैं आप ही पिया भई
नाय जानूँ कौन पिया अब नाय मैं कौन ही

पिय पिय रटूं पिया जी लूँ संग तेरे पिया
पिय मेरो संग नाचे मैं बजाऊं बाँसुरिया

मगन नाचे पिया मेरो मैं भी पिया भई
पिया मुझमें मैं पिया में भेद अब कोई नहीं

पिया संग ही जी रही हूँ बन गयी मैं भी पिया
पिया तेरो संग अमृत मुझको भी पावन किया

यूँ ही घुलते मिलते बीते जीवन जितना शेष है
मैं पिया में और पिया मुझमें न अंतर मात्र लेश है

   श्याम सुंदर प्रिया जू के इस अनन्य ,दिव्य,अद्वितीय,परिपूर्ण प्रेम पर बलिहारी जाते हैँ। नुपुर और घुंघरुओं की स्थिति भी विचित्र हो जाती है। जैसे ही प्रिया जू स्वयम् को कृष्ण समझती हैँ नुपुर अभी उनके सुख को बढ़ाना चाहती है नुपुर सभी मणि माणिक घुंघरुओं को कहती हैँ हमें अपनी स्वामिनी जू के आनंद  एवम् सुख का वर्धन करना है। श्री किशोरी जू स्वयम् को कृष्ण मान बैठी हैँ तो तुम सब राधा राधा नाम लो। इसी से स्वामिनी जू को अत्यंत सुख होगा। इस प्रकार श्री चरण संगिनी नुपुर सदैव प्रिया प्रियतम की सुख साधना में लीन रहती है और उसके मन अनुरूप घुंघरू भी युगल को समर्पित होकर भिन्न भिन्न भाव लहरियों में तरंगायित होते रहते हैँ।

क्रमशः

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