मैंने कब प्रेम किया

मैंने कब प्रेम किया
मैंने कब किया समर्पण
नाता जग से नहीं छूटा
कैसे तुम्हें जीवन करूँ अर्पण

केवल भृम् की प्रेम की किया है
प्रेम होता है सुख देना
नहीं सुख कभी दे पाई प्रियतम
मैंने सीखा केवल लेना

विषय काम क्रोध भरे भीतर
दम्भ भरा भक्ति का मैंने
मन से नहीं हुआ कभी समर्पण
व्यंग किया भक्ति पर मैंने

निर्मल कोमल हृदय नहीं मेरा
कहाँ बिठाऊँ प्रभु आपको
नहीं कोई भक्ति नहीं सेवा भी
किस विधि नाथ रिझाऊँ तुमको

सर्व विधि हूँ मैं गुनहीना
हूँ दुष्ट और अधम पातकी
तुम कहलाते हो पतितपावन
कृपा है बस दीनानाथ की

नहीं बिसारो तेरी ही हूँ
चरण शरण में रखलो प्यारे
कहाँ जाऊँ मैं तुम्हें छोड़कर
प्रियतम  प्राणनाथ हमारे

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