लौट जाते हैँ
जुबाँ अब खामोश सी हो चली है
जाने क्यों कुछ लफ्ज़ मचल जाते हैं
जो नहीं सोचते वो होता है क्यों
क्यों तेरे कूचे से नहीं निकल पाते हैँ
क्यों सदाएं दे बुलाते हो हमें
हम भी दीदार को तेरे लौट आते हैं
मत रूठना साहिब कभी गलती से मेरी
हम नहीं माहिर रूठे कैसे मनाते हैं
बोला है आँखों को तुम भी बन्द रहो
जाने क्यों दगा करके अश्क़ निकल आते हैँ
और कहाँ जाएँ छोड़ तेरी चौखट को
फिर घड़ी घड़ी खुद को लौटा लाते हैं
दर्द कुछ कम तो होगा दीदार से तेरे
इश्क़ के दर्द का भी हम शुक्रिया मनाते हैं
लोग कहते हैं तुम गम की नुमाइश करते
हम कहाँ किसे अपने जख्म दिखाते हैं
नहीं कहनी किसी को अब दास्तान अपनी
हम तो झूठे ही किस्से सब सुनाते हैं
नहीं लौटना अब हमें कभी रख लो साहिब यहीं
क्यों आते हैँ दो चार दिन फिर लौट जाते हैं
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