प्रेम को अंकुर

प्रेम को अंकुर न फूटै हिय ज्यूँ सूखी काठ
भव सिन्धु प्यारो लगे रहे भव अग्न जलात
प्रेम उपजै हिय सरस माँहिं नाँहिं जो पाषाण समान
त्यों त्यों वेग बढ़े जल को ज्यूँ ज्यूँ बढ़े ढलान
उर अंतर के कल्मष न मिटे बिनहुँ नाम के रँग
सद्गुरु चरण मन रमयो नाँहि नित नित जले ज्यूँ पतंग

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