मोहन को पत्र
कभी सोचा तुमको पत्र लिखूं
लिखने कोई उठा ली हृदय की कलम
फिर सोचा आज क्या लिखूँ
कई बार लिखा तुमको
कभी अश्रु की स्याही से
कभी कभी तो सब अक्षर ही धुल गए
पर तुम तो समझ लेते हो न
क्या लिखा मैंने
कभी कभी लिखते हुए
तुमसे रूठ भी जाती हूँ
क्यों लिखूँ
तुम कुछ लिखे क्या
यह सोचकर छिपा ही देती हूँ
कई बार तो रोते रोते फाड़ ही दिए
अब न लिखूँगी कोई पत्र
तुम कभी उत्तर तो दिए नहीं
तभी अचानक
तुम दस्तक दिए मेरे हृदय पट पर
दिखा बाँवरी
क्या लिखी तू
मैंने तो कुछ लिखा ही न अभी
तुम आ ही गए
स्वयम ही पढ़ लो न
इन नेत्रों से........
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