क्यों पुनः पुनः

क्यों पुनः पुनः इस विरहणी के
हृदय को तार कर जाते हो
तुम आते तो कभी नहीं मोहन
क्यों ये पाती भिजवाते हो

क्या हृदय मेरा पाषाण कोई
जो तुम बिन विकल नहीं होगा
तुमसे कितनी दूरी पर हूँ
कब मिलना हाय सुलभ होगा

चलो प्रिय ये भी मानी हूँ
तुम चाहो तो नैन भिगो लूँगी
तेरी स्मृति न जाती हृदय से
कभी गयी तो थोड़ा रो लूँगी

हो दूर चाहे मेरी दृष्टि से
हृदय से कहो कैसे जाओगे
जानती हूँ तुम प्रेम पिपासु हो
हो प्रेमवश पुनः लौट आओगे

परन्तु ये प्रेम तुम्हारा ही
मुझको हाय अभी न प्रेम हुआ
मोहन कैसे आओगे तुम यहां
मुझको हाय अभी न प्रेम हुआ
मुझको हाय अभी न प्रेम हुआ

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