सकल जगत को प्रेम
सकल जगत को प्रेम दान दियो तुमसों कौन उदारा
जन जन को प्रेम धन दीन्हा नाँहिं कछु कबहुँ विचारा
हरि नाम की नाव बना कर भव सों कियो उतारा
राधाभाव को कियो आस्वादन चख्यो बिरह रस खारा
और कछु ना नाथ तुमसों चाहूँ हिय बहे प्रेम रस धारा
भव में डोल नाँहिं जावे मेरी नैया आपहुँ करो किनारा
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