तुमसे इश्क़ मोहन
तुमसे इश्क़ मोहन
ऐसा मर्ज है
जो लग गया
अब ज़िन्दगी भी
ज़िन्दगी न रही
मौत की दुआ रोज़ की
पर कुबूल न हुई
खिलौनों से खेलना आदत है तुम्हारी
खिलौने हैं तो भी तेरे ही
क्या पूछते हो तुम
इश्क़ करने वालों का हाल
तुमसे क्या छिपेगा
कातिल भी तो तुम हो
तेरे इश्क़ का मर्ज़
लगा है कुछ ऐसा
कि दर्द भी तुम हो
और दवा भी तुम
दिलों से खेलना भी
आदत है तुम्हारी ऐसी
जिससे इश्क़ करते हो
किसी काम का नहीं रहता
जो उनको खबर होती मेरे इश्क़ की
तब वो कहाँ रुकने वाले थे
उनके आने पर तो यक़ीन है मुझको
अपनी ही मोहब्त पर मुझे ऐतबार नहीं
दोनों बातें ही मेरा दिल जानता है
तेरी बेपनाह मोहब्त और मेरी बेपनाह गुस्ताखियां
इश्क़ होता ग़र मुझको तो लफ़्ज़ों में न होता
दिल में रहने वाले कोई खत भी लिखता है क्या
लफ़्ज़ों में ही उलझ कर रह गयी मोहबत मेरी
काश कभी तेरे दिल की किताब पढ़ी होती
मेरे ज़िंदा होने की कोई वजह तो होती
इश्क़ न हुआ बेवज़ह क्यों ज़िंदा हूँ
ग़र तुम दिल में होते तो दिल से ही सुनते
ये कलम क्यों उठी है तुम्हें सुनाने के लिए
मत हँसो मेरे दर्द पर मेरे प्यारो
इस हसीन दर्द को ज़रा चख कर देखो
उसकी याद में क्यों दिल में कसक उठती है
अपने ही दिल पर ज़रा हाथ रखकर देखो
है न कातिल वो तुम्हारा भी जिसने
रूह तक को गिरफ्त में ले रखा है
और कुछ सूझता नहीं अब उसके सिवा
एक ही दिल था जो उसको दे रखा है
Comments
Post a Comment