कौन हूँ मैं

कौन हूँ मैं
नहीं जानती
सच में नहीं ज्ञात
मुझे मेरा अस्तित्व
स्वयम को कभी जाना ही नहीं
बहुत रूप बदले
बहुत नाम बदले
बहुत स्थान बदले
बहुत सम्बन्ध बदले
परन्तु
कोई स्थिर ही न था
कोई टिका ही नहीं
हर बार एक नई पहचान
परन्तु नहीं
यह मैं नहीं
यदि यह मैं होती
तो क्यों बदलती पुनः पुनः
यह मैं नहीं

परन्तु मैं कौन

यही स्मृति नहीं मुझे
यही प्रश्न व्यथित किया पुनः पुनः

कौन हूँ मैं
क्या है मेरा अस्तित्व

अब यही जाना
मैं तो कोई भी नहीं
मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं
मैं तो एक तरँग मात्र हूँ
तुम्हारे हृदय प्रेम सागर की
एक छोटी सी तरँग
क्या तरँग का कोई अस्तित्व हुआ कभी
क्या तरँग का कोई नाम हुआ कभी
पुनः पुनः उठी
चाहे कितनी ही ऊँची
परन्तु विश्राम तो वही सागर हुआ

मेरे भीतर वही था
जो तुम भरते गए

हाँ
मुझे तरँग ही रहना है
तुमसे उठकर पुनः तुम्हीं में मिलना है
तुम्हारे प्रेम सागर में ही
मेरा विश्राम.....

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