मोहना रे

मोहना रे !
कैसी तेरो मुरली बाजत
सुधि बिसरी जन जन की ऐसी कहत सुनत नाहिं आवत
मोहना रे......

खग मृग कोकिल मयूर नाचत सुन मुरली की तान
चित्रलिखित गईयाँ उत ठाढ़ि कैसो भई पाषाण समान
सुधि बिसराय बैठे सकल जन और न कछु सुहावत
मोहना रे......

सुर संगीत मुरली ने छेड़े मिलन का गीत सुनाया
मधुर भाव गोपी जन के उर नाहिं जात समाया
विरह वेदना से अति व्याकुल मन्मथ तोहे पुकारत
मोहना रे.......

वेणु ने सुर नाद जो छेड़ा प्रकृति ने रूप सजाया
परम् पुरुष के उर भीतर प्रेम का चाव बढ़ाया
रंग रँगीली रूप रसीली बन तेरो मिलन सुख चाहत
मोहना रे......

जिस उर नाद वंशी को गुंजत सो कैसो मति पावे
हाय बाँवरी अति अकुलावे कबहुँ मोहन नाद सुनावे
विरह वेदना से जले उर अंतर नीर न नयन समावत
मोहना रे !
कैसी तेरो मुरली बाजत....
रसिया रे !
कैसी तेरो मुरली बाजत.....

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