सूखे पत्ते
ये जो हवाओं में उड़ते हैं सूखे से पत्ते
जाने क्यों तेरे आने की आहट लगती है
इस वीराने में आहट कोई होती है
जाने क्यों नज़र ढूंढती है तुझे ही
बारिश की बूंद से भी कभी सिरहन हुई
यूँ तो कई सावन गुज़रे इस जिंदगी के
कभी कभी दूर तलक तपती धूप लगती
तेरी याद ही ठंडी हवा का झोंका बन गुज़रती
जाने क्यों ढूंढती हूँ हर जगह तुमको
सच तो यह है तेरे बिन मुक्कमल कुछ नहीं
इश्क़ क्या है यह तो कभी न समझा मैंने
बस तेरा ही कोई नाम होता होगा
जाने क्यों नासमझ सी हो गई हूँ अब
थी समझदारी कभी भरी हुई अंदर काफ़ी
जो भी है जैसा भी बस मेरा बस नहीं चलता
तू ही आकर अपनी अब चला ले मुझपर
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