प्रकृति का समर्पण
आज
मैंने उस सामने वाले वृक्ष से पूछा
तुम इतने प्रसन्नचित कैसे
तुमको कोई दुःख नहीं
तुम कैसे मदमस्त हो
तुम्हारे पुष्प पल्लवित हो रहे
तुम्हारे फल सबको तृप्त करते
पवन तुम्हें छू आनंदित हो रही
तुम्हारी लताएँ इतनी आह्लादित कैसे
क्या तुम्हें कोई व्यथा नहीं
क्या तुम्हारा अपने प्रियतम से
कभी वियोग नहीं हुआ
तुम हर समय इस अवस्था में कैसे
मैं एक मूक दर्शक बन
देखती रहती हूँ तुमको
कभी तुम्हारे आनंद से आनंदित
पर कभी ऐसी व्यथित
तुम्हारा सानिध्य भी मुझे
कोई प्रसन्नता नहीं देता
उस वृक्ष ने ये उत्तर दिया
मेरा और मेरे प्रियतम का
नित्य संयोग है
हमारी कहीँ पृथकता है ही नहीं
मैं सदैव प्रियतम को ही समर्पित हूँ
मेरे पुष्प फल छाया
सब प्रियतम हेतु ही हैँ
मैंने उनसे कभी वियोग अनुभव ही नहीं किया
मेरे रोम रोम का
प्रत्येक स्पंदन
मेरे प्रियतम हेतु है
उनके आनंद में ही मेरा आनन्द है
मुझे उस वृक्ष से बात कर
बहुत ग्लानि हुई
उसका जीवन समर्पित हो चुका
उसकी प्रत्येक अभिव्यक्ति
प्रियतम हेतु ही
तभी उसके भीतर का
आह्लाद उन्माद
सबको तरंगायित करता है
ये वृक्ष तो
कोटि कोटि वन्दन योग्य है
इस वृक्ष के निकट आने वाला
प्रत्येक जीव
उसके आनंद को
अनुभव करता है
उसमें नवजीवन का संचार हो जाता
मात्र इस वृक्ष के सामीप्य से
सच है
ये प्रकृति
सदैव प्रियतम हेतु
सजी संवरी
सदैव उनको समर्पित
सदैव आनन्दित
सदैव उन्मादित
हाय !
मुझे कब ऐसा प्रेम होगा
कभी दृष्टि प्रकृति की और जाती है
और कभी स्वयम् की ओर
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