ताप अतृप्ति अश्रु

ताप
अतृप्ति
अश्रु
व्याकुलता
यही तो जीवन हो गया
एक दीपक की लौ
जलती रहती है
भीतर ही भीतर सुलगना
इस विरह वेदना का
ताप प्राण भी तो नहीं लेता
प्रति क्षण ये व्याकुलता
बढ़ती ही जाती है
क्या यही प्रेम होता है
क्या ऐसे ही स्वयम् को विसर्जित किया जाता है
मुझे तो अनुभव ही नहीं
पूछ ही लूँ
इस दिये की बाती से
क्यों जल रही हो
कब से जल रही हो
कब तक जलती रहोगी
बाती बोली जब तक प्रेम रुपी तेल में निमंजित हूँ
आहा !
इस दिये में भी देखा मैंने
मेरे युगल
इस दिये की लौ में
वो नील पीत आभा
जो बाहर से पीत वर्ण
भीतर से नील वर्ण
मेरे युगल
मुझे दर्शन देने पहुंच गए
कितना प्रेम करते हैं मुझसे
जहां तक मेरी दृष्टि जाती है
मेरे सामने दृष्टिगोचर होने लगते
तब केवल मेरे युगल ही रह जाते
केवल युगल
विस्मृत हो जाते सब
ताप
अतृप्ति
अश्रु
व्याकुलता

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