सम्पूर्ण आत्म विसर्जन
सम्पूर्ण आत्मविसर्जन
ये कैसे होगा
नहीं नहीं
मेरी तो कोई सामर्थ्य ही नहीं
मैं कहूँ मुझसे हुआ
तो भी मैं तो शेष रही
मुझे तो शेष होना ही नहीं
चाहा था मैंने आत्म विसर्जन
हुई थी उन्मुख संसार की ओर
विषयों की ओर
भूलना चाहा था स्वयम् को
वो रस तृप्त नहीं कर पाया
तुम नहीं मिले
पुनः पुनः लौट आई
विस्मृत नहीं हुआ
अपना अस्तित्व
जन्मों के संस्कार मेरे
ये जड़त्व
नहीं विसर्जित करने देता
मुझे मेरा अहंकार
मैं हर और से अक्षम
तुम ही करो
तुम्हारे प्रेम से ही सम्भव हो
फिर मैं कहूँ
मुझे तुमसे प्रेम हुआ
तो फिर मेरा अस्तित्व तो रहा
कहाँ हुआ मेरा आत्म विसर्जन
मुझे तो विस्मृति नहीं हुई
विस्मृति तब हो
जब समर्पण का भी समर्पण हो जावे
मैं शब्द ही नहीं
तुम ही रहो
केवल तुम
मोहन
केवल तुम
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