अब न कहूँगी

ना मोहन ना
कुछ ना कहूँगी
अब नहीं कहूँगी
कोई व्यथा अपनी
क्यों दूँ तुमको
अब तक बहुत दे चुकी
नहीं कहूँगी
भीतर ही जलूँगी
तड़प मरूँगी
तुमको नहीं कहूँगी
हमेशा ही कहा है
तुमको सदा ही कहा है
मैं कहती रही
तुम सुनते रहे
अपनी तपिश सदा कम की मैंने
सब दर्द कह दिए
कभी तुमसे पूछा नहीं
क्या तुमको कोई दर्द है
हमेशा अपने मन की कहती रही
कभी सुनी नहीं
यूँ ही हो रहा
जन्मों जन्मों से
सब दर्द दुःख
देती रही तुमको
ये तो प्रेम नहीं हुआ
इसमें मेरा स्वार्थ ही रहा
नहीं नहीं मोहन
मैं योग्य ही नहीं हूँ
मुझे कहाँ आता
और मुझे सीखना भी नहीं
सदा अयोग्य ही रहना
जो देना नहीं समझे
जो मिटना नहीं समझे
वो प्रेमी कैसे
प्रेम तो तुम करते हो
तुम ही करो सदा
तुम्हारा प्रेम ही है केवल
सच्चा प्रेम

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