पहचानती हूँ
मोहन
देखो पहचानती हूँ तुमको
तुम छिप नहीं सकते मुझसे
छलिया हो ना
जानती हूँ तुम छिपते रहोगे
मैं पहचान लेती हूँ
पूछो कैसे
तुम्हारे ही प्रेम से मोहन
तुम्हारा प्रेम ही तुम्हारा स्पर्श देता है
तुम आए कभी सर्दी की धूप बन
एहसास देते रहे अपने होने का
तपती हुई गर्मी में
वो बरसती हुई बौछारें
वो भी तुम ही बन आए
इस तप्त हृदय को शांत करने
वो पवन के शीतल झोंकें
हाँ वो भी तुम ही थे
तुम्हारे स्पर्श से पहचान लेती हूँ
तुम प्रेम ही इतना अद्भुत करते हो
पर तुम छलिया हो
फिर से मुझे छलने लगे
ये जो तेज़ धूप है झुलसाती हुई
ये भी तुम ही हो
देखो पहचान गयी मैं
तुम ऐसे बन आए
तुमको पहचानूँ नहीं
जानती हूँ इस तपिश के पश्चात
तुम नभ् में श्याम मेघ बन आओगे
फिर वही बौछारें और आनंद देंगी
तो क्या इस तपिश से मुख मोड़ लूँ
नहीं नहीं
ये भी तुम ही तो हो मोहन
हर सुख देने तुम आए
जब दुःख आए
तो तुम्हें क्यों ताहने उलाहने दूँ
सब तुम ही तो हो
देखो तुम्हारा प्रेम
मुझे हर जगह अनुभव होता है
सब तुम ही हो
सब स्वीकार मोहन
जैसे तुम चाहो
जो तुम चाहो
जानती हूँ ये स्वीकार्यता भी
तुम्हारा ही प्रेम है
अद्भुत प्रेम करते हो तुम मोहन
अद्भुत प्रेम
Comments
Post a Comment