मूर्ख अभिमानी
मैं मूर्ख हूँ और अभिमानी
कैसे मैं गुणगान करूँ
नहीं साधना जप तप नहीं कोई
फिर भी झूठा अभिमान करूँ
इतनी कृपा करो युगलवर
जपती रहूँ मैं श्यामाश्याम
सेवा करूँ नित्य आपकी
चरणों में करती रहूँ प्रणाम
मन बुद्धि लगे आपकी और ही
दुःख कोई नहीं विचलित करे
जो घटे इस क्षणिक जीवन में
नहीं भीतर कोई आहट करे
मन मेटे की मैल हटा दो
निर्मल करो प्रभु मैला चित
आपकी रहूँ मैं जीवन भर
जीवन बीते आपके निमित्त
हो संसार में भी आप ही
ये यही भाव से सेवा करूँ
सबके भीतर हो युगल दर्शन
यही मन में बस भाव भरूँ
ब्रज की रज कीजो श्यामा
रज में ही मैं सदा रहूँ
और नहीं कुछ मुख से बोलूं
श्यामाश्याम ही सदा कहूँ
जय जय श्यामाश्याम
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