जाने क्यों बन सी गयी

जाने क्यों बन सी गयी गुस्ताखियाँ आदत मेरी
नज़र मिलाऊँ भी कैसे देखी ना मोहबत तेरी

ज़र्रे ज़र्रे में क्यों तेरा इश्क़ देखा ना
बेसबब करते हो देखी ना इनायत तेरी
जाने क्यों बन सी गयी......

हूँ खतावार अब नज़र भी उठाऊँ कैसे
मैंने कभी की भी नहीं बन्दगी ना इबादत तेरी
जाने क्यों बन सी गयी.....

कदम कदम पर तुमने है सम्भाला मुझको
इश्क़ करना ही देखी है साहिब आदत तेरी
जाने क्यों बन सी गयी......

जैसी भी हूँ अपना किया ये भी है इश्क़ तेरा
मुझको भी हो जाये कभी चाहत की चाहत तेरी
जाने क्यों बन सी गयी......

है सलाम तुझको सलाम तेरे इश्क़ को साहिब
नहीं काबिल हूँ कभी कर भी सकूँ इबादत तेरी
जाने क्यों बन सी गयी......

लफ्ज़ नहीं पास मेरे औक़ात नहीं कुछ भी लिखूँ
है कदम कदम पर मिली फिर भी मोहबत तेरी
जाने क्यों बन सी गयी.......

हूँ खतावार की तेरे चाहने वालों को चाह ना सकी
दिल में क्यों उठती नहीं पाक़ कोई हसरत मेरी
जाने क्यों बन सी गयी.......

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