मैंने कब आफ़ताब देखा है

मैंने कब आफ़ताब देखा है
रुख़ पर उनके हिज़ाब देखा है

दिल के आँगन में कई फूल खिले
तुमसा नहीं कोई गुलाब देखा है
मैंने कब आफ़ताब देखा है
रुख़ पर ........

तेरी मोहबत को जिया है मैंने
तुझको इक खुली किताब देखा है
मैंने कब आफ़ताब देखा है
रुख़ पर .........

थी कभी बाँहों में तेरी मैं भी
आज लगता है ख़्वाब देखा है
मैंने कब आफताब देखा है
रुख़ पर.........

नहीं कोई तुझसा कहीँ मिला मुझको
मैंने हर शख़्स जनाब देखा है
मैंने कब आफ़ताब देखा है
रुख पर ..........

बादलों में छिप जाता है अक्सर
अक्सर यूँ माहताब देखा है
मैंने कब आफताब देखा है
रुख़ पर ..........

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