चंचल मन मोरा
चंचल मन मोरा काहे
हरि सों प्रीत न करे
दिवस रात बीते विषयन में
हरिनाम नहीं उच्चरे
हर पल दौड़ लगी माया की
क्या खोया मैंने क्या पाया
मुख सों हरि को नाम लिया ना
सगरा मानुष जन्म गवाया
सञ्चय करले हरिनाम धन
मन से क्यों हरि बिसरे
चंचल मन........
स्वास् स्वास् तेरा होय अमोलक
परमधन काहे ना जोड़े
बीत गयी तेरी उम्र बहुतेरी
स्वास् बचे हैं थोड़े
मलिन मन में प्रीत जगे ना
मन के भीतर काम भरे
चंचल मन.......
हरिनाम से निर्मल करले
मन अंतर के सब कल्मष
प्रेम भाव से बन्ध जाते हरि
प्रेम में होते हैं भक्तनवश
तब ही प्रेम करेगा मन तेरा
मुख से बोल तू गोबिंद हरे
चंचल मन ........
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