हज़ारों महफिलें देखीं
हज़ारों महफिलें देखीं उनकी महफ़िल में जाना है
वही हैँ अब ग़ज़ल मेरी वही मेरा तराना है
जाने क्यों खुद से रुस्वा हैँ वजह भी कुछ नहीं ऐसी
बहुत आज़माया दुनिया को अब खुद को आज़माना है
हज़ारों महफिलें देखी.......
सच तो ये कबूल किया नहीं मैंने इबादत की
नहीं मैं जान पाई इश्क़ ना आया ही निभाना है
हज़ारों महफिलें देखी.......
नहीं कोई रंज है दिल में खताएँ भी बहुत की हैं
मेरा तो काम ही जैसे किसी का दिल दुखाना है
हज़ारों महफिलें देखीं........
नहीं मिलना कभी सरकार मुझको अपनी महफ़िल में
क्यों इस गुस्ताख दिल का कोहिनूर को पाना है
हज़ारों महफिलें देखीं......
क्यों मैंने आरज़ू कर ली नहीं औक़ात ज़हन में थी
हूँ गुस्ताख मुद्दत से मेरा फन ही सब छिपाना है
हज़ारों महफिलें देखीं........
किया मैंने कैसे पर्दा अपनी ही गुस्तखिओं का तुझसे
नहीं दिल में ख्याल आया नामुमकिन तुझसे छिपाना है
हज़ारों महफिलें देखीं......
मेरे मौला कुछ इन्साफ कर जलाओ आग में दोज़ख की
तेरी रज़ा में राज़ी रहना यही दिल को मनाना है
हज़ारों महफिलें देखीं.......
एक बार सज़ा तो दो थोड़ी गुस्ताखियाँ कम हों
तू करता है इन्साफ सबका तुझे भी तो दिखाना है
हज़ारों महफिलें देखीं........
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