दिल की बात
उलझती फिरती हूँ भटकती फिरती हूँ
क्यों तेरे दर पे सुनवाई नही है
सम्भालो अगर कभी माना है अपनी
या किस्मत में मेरी दवाई नही है
रोग तेरे इश्क़ का मुझको लगा है
जिसकी दवा भी बनाई नहीँ है
नहीँ औकात मेरी की तुझे चाहूं
ऐसी किस्मत भी तूने बनाई नही है
नही तेरे दीदार के काबिल हूँ मैं
एक भी चिलमन उठाई नही है
अगर खुश हो तुम पर्दे में रहकर
लगा लो लगा लो लाख पर्दे लगा लो
कभी एक एक करके उठाओगे खुद
क्या मेरी तड़प भी बढ़ाई नही है
मुझे आग में जलना भी मंजूर है
क्या ये आग तेरी लगाई नही है
मुझे अब ना छोड़ो मेरी मैं जला दो
क्यों जिन्दा है अबतक जलाई नही है
क्यों हर बार अनसुनी कर देते हो बातें
क्या दर पे तेरे कोई सुनवाई नहीँ है
मुझे इश्क़ है बस तुम्हीं से कान्हा
क्या ये बात मैंने बताई नहीं है
समझती हूँ तुम बिन बोले भी सुनते
मगर मैंने अब तक सुनाई नहीँ है
तो सुन लो ओ प्यारे इश्क़ है तुम्हीं से
ना फिर कहना दिल की सुनाई नही है
हर पल बसे हो मुझमे कुछ ऐसे
की हम दोनों में अब जुदाई नही है
Comments
Post a Comment