प्रेम प्राप्ति की लालसा
*प्रेम प्राप्ति की लालसा*
श्रीप्रेम प्रभु जी जीव की वास्तविक प्राप्ति हैं, परन्तु उनसे विमुख हुआ जीव विषय भोग के आवरणों में फंसा हुआ है। व्याकुल चित्त को विश्राम नहीं है क्योंकि मूल में वह जहाँ से छूटा है उसका अनुभव ही नहीं है, उसकी स्मृति ही नहीं है, ज्ञान ही नहीं है कि उसका वास्तविक स्वरूपः क्या है । भीतर की जो व्याकुलता है, हृदय को जो रस लोभ है वह जीव के चित्त को स्थिर नहीं होने देता , जिससे वह जीव भिन्न भिन्न विषयों का आस्वादन करता है, बाहर रस को खोजता है , अपनी सम्पूर्ण लालसाओं की तृप्ति कर ही नहीं पाता, क्योंकि विषय भोग की परतें गाढ़ी अति गाढ़ी होती जाती हैं। एक वस्तु से चित हट दूसरी में लगता है, यह दौड़ अभी की नहीं है, अभी आरम्भ न हुई वस्तुतः यह तभी से आरम्भ है जब से वह अपनी उस निर्मल स्थिति से छूटा है।जगह जगह विषपान किया परन्तु वह अमृत , कहाँ मिले।
जब तक जीव की अपनी दौड़ है वह नित्य नया रस खोजता है परन्तु हर रूप में निराश ही। कभी उसके भीतर इन सब भोग लालसा के प्रति घृणा उठे तो वह पुकारे, वह पुकारे उस परम निर्मल सत्ता को।श्रीप्रेम प्रभु तो उसकी एक झूठी सी पुकार पर ही दौड़ पड़ते हैं। जिनके भीतर अनन्त कोटि माताओं के वात्सल्य झरता हो वह कैसे अपने अंश को पीड़ा में देख पाते हैं। परन्तु जीव की दृष्टि कभी उनपर पड़ती है तो वह भी अपने भोग लालसा की पूर्ति हेतु ही। अपने वास्तविक सुख , अपने वास्तविक स्वरूपः से जीव सदा ही विमुख, भीतर उस परम सत्ता प्रेम रस के लिए व्याकुलता ही नहीं कोई विरह ही नहीं , कोई पुकार ही नहीं।प्रभु सेवा या प्रभु दर्शह्न भी जीवन मे हों तो भोग की प्राप्ति तक ही। यही जीव की जन्म जन्म की दुर्गति है।
श्रीप्रभु कृपा से , रसिक अनुकम्पा से, श्रीगुरु कृपा से जब किसी जीव को श्रीप्रभु से अपना सम्बन्ध ज्ञात होता है तब उस भावना को गहराते गहराते ही उसकी चेतना में रुदन फूटता है।
हरिहौं कहौं व्यथा कौन भाँति
व्याकुल हिय कित ठौर न पावै क्षणहुँ मिले न शाँति
क्षणहुँ मिलै न शाँति हरिहौं बाँवरी हिय त्रयताप जरावै
नाम भजन कौ सार न कीन्हीं मूढ़ा पुनि जग वीथिन जावै
साँची पीर न उपजै हिय अंतर न साँचो नेहा लगाई
जन्मन की रही निर्धन बाँवरी कबहुँ साँचो धन न पाई
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हरिहौं हिय पाथर सौं कठोरा
कल्मष क्लेश सब भरे जन्म सौं लगै जगति कौ दौरा
लगै जगति कौ दौरा क्षण क्षण जबहुँ हाथ सुमिरिनि राखै
नयन न निरखै मधुर छवि कौ भोग जगति कौ भाखै
विषय भोग अति गाढ़ै हरिहौं होय कौन भाँति छुटकारा
क्षण न रमैं हिय नाम भजन कौ बाँवरी जन्मन जन्म बिगारा
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हरिहौं बिरथा रसना रखाई
जेई रसना हरिनाम न गावै षड रस रहै लुभाई
षड रस रहै लुभाई क्षण क्षण बिरथा स्वासा कीन्हीं
बाँवरी तू जन्मन की खोटी कबहुँ हरिनाम न लीन्हीं
हरिनाम बिना मूढ़े कैसो हरिप्रेम हिय उमगाय
बाँवरी देरन ते भव निद्रा सोई आपहुँ लयो जगाय
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हरिहौं देयो नाम कौ प्रेम
बाँवरी मूढ़ा जग वीथिन डोले न जाने भजन अरु नेम
निर्धन रही जन्म जन्म सौं न नाम कौ धन संचय कीन्हीं
साँचो लागे षडरस मूढ़े बाँवरी कबहुँ हरि शरण न लीन्हीं
जग वीथिन फिरै बौराई तोहे लगै कबहुँ भजन कौ स्वाद
कबहुँ होय तेरौ भव भोग छुटकारा हिय उठै प्रेम उन्माद
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हरिहौं अपनी ओर देखत लजात
कबहुँ पिघले हिय पाथर बाँवरी बिरथा जन्म गमात
बिरथा जन्म रहे गमात बाँवरी कबहुँ हरिनाम न भावै
विषयन कूकरी स्वाद जगति को जग वीथिन लौटत जावै
कबहुँ तेरौ भव निद्रा छूटे कबहुँ हरिनाम सुधि आवै
बाँवरी मूढ़ा भवनिद्रा गाढ़ी तेरौ किस विध छुटकारा पावै
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