चेतना

चेतना
तू किसकी
कहाँ से बिखरी
भटकी
अकुलाई
ढूंढी
पाई
भुलाई
फिर खोजी

यही तो हुआ इस चेतना सँग
कहाँ से बिखरी
जान भी गयी
पर भुलाती रही
पुनः पुनः
व्याकुल
अतृप्त
क्योंकि तृप्ति और कहीं होगी ही नहीं
इस चेतना का जब तक उस महाचैतन्य में विश्राम नहीं

सच पूछो
तो विश्राम भी विश्राम ही नहीं
समुद्र से मिलकर भी प्यास उमड़ती
ऐसा समुद्र जिसका तल ही गहरा है
और और और.....
क्योंकि यह महाचैतन्य जो है
पुनः पुनः इस समुद्र में
मिल मिलकर उछलना ही तो
इस चेतना की गति
इसका जीवन.......

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