प्रेम प्रभु

*प्रेम प्रभु*

प्रेम ही जीवन स्वरूप है। प्रभु ने जीव को हर रूप में अपना स्पर्श ही प्रदान किया है, परन्तु निर्मलता के अभाव में जीव उस स्पर्श को अनुभव नहीं कर पता। जड़ता और विषयों के आवरण उसे उसके निर्मलत्व रूप *प्रेम मई सेवा* का अनुभव नहीं होने देते। परन्तु प्रेम प्रभु अपना स्वभाव नहीं छोड़ते। प्रभु कृपा से ही जीव को भक्ति का, निर्मलता का सहज मार्ग प्राप्त होता है जहाँ प्रभु अपनी रूप माधुरी, वेणु माधुरी आदि द्वारा जीव के चित्त का हरण करते हैं।

      प्रेम प्रभु की कृपा से ही उस मैले स्वरूपः का निर्मलीकरण आरम्भ होता है। परन्तु आरम्भ में जीव को अपने सेवा स्वरूपः का दर्शन नहीं होता, धीरे धीरे प्रेम प्रभु ही अपने सारे रहस्य उस चेतना पर प्रकट करते हैं।

     आरम्भ में जीव प्रभु को प्रियतम स्वरूप में स्वीकार करता है , परन्तु तब तक उसे प्रभु की आह्लादिनी वृत्ति का दर्शन नहीं हित। धीरे धीरे प्रभु उसका देहाध्यास मिटा कर भीतर से अपना स्वरूपः प्रकट करते हैं। तब जीव प्रभु को श्रीराधामाधव युगल रूप में स्वीकार करता है। प्रेम प्रभु की ही कृपा से जीव श्रीकिशोरी जु के कैंकर्य स्वरूपः को समझ पाता है कि वह तो इस प्रीति की सेवा है। श्रीयुगल श्रीश्यामाश्याम कृपा ही जीव को इस मधुर पथ पर अग्रसर करती है।

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