लय विलय
*लय विलय*
आत्मा का लय विलय है तो है कहाँ। तृषित सी हुई यह चेतना कहाँ विश्राम चाहती है। कोई ऐसा गीत जो इस चेतना को झँकृत कर दे। कोई ऐसा स्पर्श जो इसे चैतन्य कर दे। कोई ऐसा नृत्य जो चेतना का उन्माद हो जाए। तृषित सी ही रही, खोजती रही, इसकी प्रतीक्षा भी तो छोटी नहीं है। युगों युगों से प्रतीक्षा की है, क्योंकि ज्ञात ही न हुआ कि छूटी है तो कहाँ से, लय विलय है तो कहाँ ?
यह तृषा भी तो छोटी नहीं है। क्योंकि यह तृषा उस चेतना की है जो उस महाचैतन्य का ही एक कणिक प्रतिबिंब है। यह उस अथाह सिन्धु की एक बिंदु की तृषा है जो बिंदु होकर सिन्धु में ही विलीन होने को तृषित है। सारी यात्राएँ वहां तक लौटने की ही हैं , सारा श्रवण उस मधुर नाद की गूंज तक है जो चेतना को गुंजायमान कर दे। चेतना पुनः नृत्य करे , पुनः श्रृंगार हो जाए उस परम श्रृंगार का।
उस परम मधुर श्रृंगार से भिन्न इसका श्रृंगार नहीं। उस परम नाद से भिन्न इसको कुछ ध्वनित न हो, जिसके विलय की तृषा इस चेतना की वास्तविक तृषा है। ऐसी तृषा जो क्षण क्षण वर्धित है, क्षण क्षण अतृप्त, क्षण क्षण नव नव हो रही है। अपने उस मूल स्वभाव में विलय होने को , जहाँ से इसका छूटना ही पीड़ा हुआ है। जब तक उसी मूल स्वभाव , मूल श्रृंगार, मूल उद्गम को स्पर्श न कर ले यह चेतना तब तक वास्तविक विलय सम्भव हुआ ही नहीं। यह विलिनता उन चरणों की नख प्रभा के सौंदर्य , उस माधुर्य सिन्धु की एक रज कणिका होकर ही तृप्त होगी।
जय जय श्रीराधे !!
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