पुकार

*पुकार*

पुकार !!हाँ नाथ कब पुकार सकूँ तुम्हें। कब मेरी पुकार सच्ची हो। पुकारा तो बहुत मैंने , पर सच कहूँ केवल अपने स्वार्थ वश। अपनी कामनाओं के वशीभूत होकर ही पुकारा। अपने अभावों से ग्रस्त होकर पुकारा है। अपनी उन लालसाओं की पूर्ति को पुकारा जो वास्तविकता से कोसों दूर रही ,या पुकारा तो केवल अपना दुख ही सुनाने को। कभी कभी पुकार जी भर कोसा भी तुमको। सच है मुझे पुकारना भी कहाँ आया अभी।

   कभी ऐसी पुकार उठी ही न जो तुमसे और तुम तक ही हो। जिस में तुम्हारे प्रेम को पाने की चटपटी लगी हो। ऐसी पुकार जो प्राणों का क्रंदन हो। अभी पुकारना भी कहाँ आया मुझे। अभी तो इतना ही ज्ञात हुआ कि पिछली जो पुकार थी , वह पुकार ही न थी , केवल स्वार्थ, प्रमाद, लोभ , वासना थी बस। सच्ची पुकार उठे भी तो उठे कैसे। जन्मों की गाढ़ी वासना, कामना, लोभ, मद, मत्सर की परतें मेरी पुकार को वास्तविक पुकार होने ही न दिए। मुझमे तो पुकारने का सामर्थ्य भी नहीं है नाथ। मेरी पुकार तो उस बौने की भाँति है जो पुनः पुनः उछल आकाश को छूना चाहता है। मैं कभी सच्ची पुकार लगा पाऊँ तुमको इसका सामर्थ्य भी तो तुम ही दे सकते हो नाथ।

हरिहौं तुम्हरे बल होऊँ बलवान
कृपा कीजौ नाथा नाम धन चाहूँ कृपा निधान
नाम धन चाहूँ साँचो हरिहौं साँचो धन संचय होय
तुम्हरौ गुणगान रह्वै इहै जीवन और आस न कोय
और आस नास कीजौ नाथा गति मति तुम्हरो होय
हरि हरि बोले अबहुँ बाँवरी अपनो हाथ उठावै दोय

हे नाथ!कब इस हृदय से सच्ची पुकार उठे। एक एक नाम मे तुम्हें पुकार सकूँ।यह जीवन एक पुकार ही बने बस। जिव्हा पर तुम्हारा नाम ही रहे। प्राणों से पुकार उठती रहे , जब तुम्हें पुकारना ही जीवन हो जाए।

हरिहौं कबहुँं साँची पुकार लगाऊँ
साँचो नाम न निकसै हिय सौं बिलपत रहूँ अकुलाऊँ
बिलपत रहूँ अकुलाऊँ हरिहौं बड़ौ ताप हिय कौ आवै
साँचो नाथ बिसराय रही बाँवरी जन्म जन्म दुख पावै
अबहुँ नाथा कीजौ सम्भार कछु भजन की रीत बतावो
बाँवरी पड़ी भव सिन्धु डोलत हरिहौं आपहुँ आय बचावो

  इस भव सिन्धु से कोई छुटकारा है तो केवल तुम्हारी ही कृपा से। मुख से कोई नाम निकलना सम्भव है तो केवल तुम्हारी ही कृपा से। कब तुम्हें पुकार पुकार यह पाषाण हृदय द्रवित हो सकेगा नाथ। कब सारी पुकार छूट छूट एक ही पुकार रह जायेगी। कब इस हृदय को पुकारने का बल मिलेगा नाथ। जन्मों जन्म तुम्हें भुलाने की जो सज़ा भोगी है नाथ , वह सच्ची पुकार का सामर्थ्य भी नहीं देती है। नाथ! तुम्हारे ही बल से बलवान होकर तुम्हें पुकार सकूँ, ऐसी सामर्थ्य दो, ताकि एक पुकार तो *सच्ची पुकार* लगा सकूँ।

श्रीनिताई गौर हरिबोल

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